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________________ १६-ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान १५५ सूत्र ६-नो इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई, मणोरमाइं आलोइत्ता, निझाइत्ता हवइ, से निग्गन्थे। तं कहमिति चे? आयरियाह-निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएमाणस्स, निज्झायमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा, कंखा वा, वितिगिच्छा वा समुष्पज्जिजा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु निग्गन्थे नो इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएज्जा, निज्झाएज्जा। सूत्र ७-नो इत्थीणं कुडन्तरंसि वा, दूसन्तरंसि वा, भित्तन्तरंसि वा, कुइयसईवा, रुझ्यसह वा, गीयसह वा, हसियसहं वा, थणियसदं वा, कन्दियसई वा, विलवियसई वा, सुणेत्ता हवइ से निग्गन्थे। जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को नहीं देखता है और उनके विषय में चिन्तन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों? आचार्य कहते हैं--जो स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को देखता है और उनके विषय में चिन्तन करता है, उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, अथवा ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, अथवा उन्माद पैदा होता है, अथवा दीर्घकालिक रोग और आतंक होता है, अथवा वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए निर्ग्रन्थ स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों को न देखे और न उनके विषय में चिन्तन करे। जो मिट्टी की दीवार के अन्तर से, परदे के अन्तर से अथवा पक्की दीवार के अन्तर से स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, स्तनित-गर्जन, आक्रन्दन या विलाप के शब्दों को नहीं सुनता है, वह निर्ग्रन्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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