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कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है। और जन्म-मरण ही वस्तुत: दुःख है। देवताओं सहित समग्र संसार में जो भी दुःख है, वे सब कामासक्ति के ही कारण हैं। जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द आदि विषयों में सम रहता है, उस सुख की कोई उपमा नहीं है, और न कोई गणना ही है। उत्तराध्ययन नियुक्ति :
___ नियुक्ति, यह आगमों पर सबसे पहली और प्राचीन व्याख्या मानी जाती है । नियुक्ति प्राकृत भाषा में और पद्यमयी रचना है। सूत्र में कथित अर्थ, जिसमें उपनिबद्ध हो, उसे नियुक्ति कहा गया है। आचार्य हरिभद्र ने नियुक्ति की परिभाषा इस प्रकार की है-"निर्युक्तानामेव सूत्रार्थानाम् युक्ति:-परिपाट्या योजनम्" । नियुक्ति शब्द की प्राकृत और संस्कृत दोनों परिभाषाओं से यही फलितार्थ होता है कि सूत्र में कथित एवं निश्चित अर्थ को स्पष्ट करना नियुक्ति है। नियुक्ति की उपयोगिता यह है कि संक्षिप्त और पद्यबद्ध होने के कारण यह साहित्य सुगमता के साथ कंठस्थ किया जा सकता था। नियुक्ति की भाषा प्राकृत और रचना छन्द में होने से इसमें सहज ही सरसता और मधुरता की अभिव्यक्ति होती है। नियुक्ति के प्रणेता आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। कौन से भद्रबाहु-प्रथम अथवा द्वितीय? इस विषय में सभी विद्वान् एक मत नहीं हैं। परन्तु कुछ इतिहासकारों का अभिमत है कि नियुक्ति-रचना का प्रारम्भ तो प्रथम भद्रबाहु से ही हो जाता है। नियुक्तियों का समय सम्वत् ४०० से ६०० तक माना गया है। किन्तु ठीक-ठीक काल-निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में 'उत्तर' और 'अध्ययन' शब्दों की व्याख्या की है। श्रत और स्कंध को समझाया गया है। गलि
और आकीर्ण का दृष्टान्त देकर शिष्यों की दशा का वर्णन किया है। कपिल और नमि का उल्लेख है। इसमें शिक्षाप्रद कथानकों की बहुलता है। मरण की व्याख्या के प्रसंग पर १७ प्रकार के मरण का उल्लेख किया गया है । इस नियुक्ति में गन्धार श्रावक, स्थूलभद्र, कालक, स्कन्दक पुत्र और करकण्डू आदि का जीवन वृत्तान्त भी है। निह्ववों का वर्णन है। राजगृह के वैभार आदि पर्वतों का उल्लेख भी उपलब्ध होता है। इस नियुक्ति में धर्म, दर्शन, अध्यात्मयोग एवं ध्यान के सम्बन्ध में भी उल्लेख उपलब्ध हैं। उत्तराध्ययन भाष्य :
भाष्य भी आगमों की व्याख्या है। परन्त निर्यक्ति की अपेक्षा भाष्य विस्तार में होता है। भाष्यों की भाषा प्राकृत होती है, और नियुक्ति की तरह भाष्य भी पद्य में होते हैं। भाष्यकारों में संघदास गणि और जिनभद्र क्षमाश्रमण विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। विद्वान् इनका समय विक्रम की ७वीं शती मानते हैं। उत्तराध्ययन
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