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है। प्रस्तुत आगम में ३६ अध्ययन हैं-१. विनय, २. परीषह, ३. चगीय, ४. असंस्कृत, ५. अकाम मरण, ६. क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय, ७. औरभ्रीय, ८. कापिलीय, ९. नमिपवज्जा, १०. द्रुमपत्र, ११. बहुश्रुत, १२. हरि केशीय, १३. चित्त-संभूति, १४. इषुकारीय, १५. सभिक्षुक, १६. ब्रह्मचर्य-समाधि, १७. पाप-श्रमण, १८. संयतीय, १९. मृगापुत्रीय, २०. महानिर्ग्रन्थीय, २१. समुद्रपालीय, २२. रथनेमीय, २३. केशी गौतमीय, २४. प्रवचन-माता, २५. यज्ञीय, २६. समाचारी, २७. खलुंकीय, २८. मोक्ष मार्ग, २९. सम्यकत्व पराक्रम, ३०. तपोमार्ग, ३१. चरण-विधि, ३२. प्रमाद स्थान, ३३. कर्म-प्रकृति, ३४. लेश्या, ३५. अनगार मार्ग, और ३६. जीवाजीव-विभक्ति । उत्तराध्ययन का संदेश :
बहत नहीं बोलना चाहिए, अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो. संसार में अदीन भाव से रहना चाहिए। जीवन में शंकाओं से ग्रस्त-भीत होकर मत चलो । कृत-कर्मों का फल भोगे बिना मुक्त नहीं है। प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा अपनी रक्षा नहीं कर सकता, न इस लोक में न परलोक में । इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष प्राप्त होता है। एक अपने को जीत लेने पर, सबको जीत लिया जाता है। इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। जरा मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है। जैसे वृक्ष के फल क्षीण हो जाने पर पक्षी उसे छोड़कर चले जाते हैं, वैसे ही पुरुष का पुण्य क्षीण होने पर भोग साधन उसे छोड़ देते हैं। अध्ययन कर लेने मात्र से वेद रक्षा नहीं कर सकते। संसार के विषय-भोग क्षण भर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बदले में चिरकाल तक दुखदायी होते हैं। सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए। जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुत: मुनि है। तू स्वयं अनाथ है, तो दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है? अपनी शक्ति को ठीक तरह पहचान कर यथावसर यथोचित कर्त्तव्य का पालन करते हुए राष्ट्र में विचरण कीजिए। असंयत आत्मा ही स्वयं का एक शत्रु है। साधक की स्वयं की प्रज्ञा ही समय पर धर्म की समीक्षा कर सकती है। ब्राह्मण वही है, जो संसार में रहकर भी काम भोगों से निर्लिप्त रहता है, जैसे कि कमल जल से लिप्त रहकर भी उसमें लिप्त नहीं होता। समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तपस्या से तापस कहलाता है। कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य होता है, और कर्म से ही शूद्र । स्वाध्याय सब भावों का प्रकाश करने वाला है। वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाले 'जिन' भगवान् ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बताया है। सम्यक्त्व के अभाव में चारित्र नहीं हो सकता। ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विसर्जन से, राग-एवं द्वेष के क्षय से, आत्मा एकान्त सुख-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। राग और द्वेष—ये दो कर्म के बीज हैं।
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