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________________ १. २. पनरसमं उज्झयणं : पंदरहवाँ अध्ययन सभिक्खुयं : सभिक्षुक हिन्दी अनुवाद मूल मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्मं " धर्म को स्वीकार कर मुनिभाव सहिए उज्जुकडे नियाणछिन्ने । का आचरण करूँगा”- उक्त संकल्प से संथवं जहिज्ज अकामकामे जो ज्ञान दर्शनादि गुणों से युक्त रहता अन्नायएसी परिव्वए जेस भिक्खू ।। है, जिसका आचरण सरल है, जिसने निदानों को छेद दिया है, जो पूर्व परिचय का त्याग करता है, जो कामनाओं से मुक्त है, अपनी जाति आदि का परिचय दिए बिना ही जो भिक्षा की गवेषणा करता है और जो अप्रतिबद्ध भाव से विहार करता है, वह भिक्षु है । जो राग से उपरत है, संयम में वेयवियाऽऽयरक्खिए । तत्पर है, जो आश्रव से विरत है, जो सव्वदंसी शास्त्रों का ज्ञाता है, जो आत्मरक्षक एवं अभिभूय जे कम्हिच नमुच्छिएस भिक्खू ॥ प्राज्ञ है, जो रागद्वेष को पराजित कर सभी को अपने समान देखता है, जो किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होता है, वह भिक्षु है । रागोवरयं चरेज्ज लाढे विरए पन्ने Jain Education International १४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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