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________________ १४७ १५-सभिक्षुक ३. अक्कोसवहं विइत्तु · धीरे कठोर वचन एवं वध-मारपीट मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते। को अपने पूर्व-कृत कर्मों का फल अव्वग्गमणे असंपहिरे जानकर जो धीर मनि शान्त जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥ रहता है, जो संयम से प्रशस्त है, जिसने आश्रव से अपनी आत्मा को गुप्तरक्षित किया है, आकुलता और हर्षातिरेक से जो रहित है, जो समभाव से सब कुछ सहन करता है, वह भिक्षु ४. पन्तं सयणासणं भइत्ता जो साधारण से साधारण आसन सीउण्हं विविहं च दंसमसगं। और शयन को समभाव से स्वीकार अव्वग्गमणे असंपहिढे करता है, जो सर्दी-गर्मी तथा जे कसिणं अहियासए स भिक्खू । डांस-मच्छर आदि के अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों में हर्षित और व्यथित नहीं होता है, जो सब कुछ सह लेता है, वह भिक्षु है। ५. नो सक्कियमिच्छई न पूयं जो भिक्षु सत्कार, पूजा और नो वि य वन्दणगं, कुओ पसंसं? वन्दना तक नहीं चाहता है, वह किसी से संजए सुव्वए तवस्सी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा? जो सहिए आयगवेसएस भिक्खू ॥ संयत है, सुव्रती है, और तपस्वी है, जो निर्मल आचार से युक्त है, जो आत्मा की खोज में लगा है, वह भिक्षु ६. जेण पुण जहाइ जीवियं स्त्री हो या पुरुष, जिसकी संगति मोहं वा कसिणं नियच्छई। से संयमी जीवन छूट जाये, और सब नरनारिं पजहे सया तवस्सी ओर से पूर्ण मोह में बँध जाए, तपस्वी न य कोऊहलं उवेइ स भिक्खू ॥ उस संगति से दूर रहता है, जो कुतूहल नहीं करता, वह भिक्षु है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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