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४४. भोगे भोच्चा वमित्ता य लहुभूयविहारिणो । आमोयमाणा गच्छन्ति दिया कामकमा इव ॥
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इमे य बद्धा फन्दन्ति
मम
हत्थऽज्जमागया |
वयं च सत्ता कामेसु भविसामो जहा इमे ॥
४६. सामिसं कुललं दिस्स बज्झमाणं निरामिसं । आमिसं सव्वमुज्झित्ता विहरिस्सामि निरामिसा ।।
४७. गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे
संसारवणे । उरगो सुवणपासे व संकमाणो तणुं चरे ॥
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उत्तराध्ययन सूत्र
"आत्मवान् साधक भोगों को भोगकर और यथावसर उन्हें त्यागकर वायु की तरह अप्रतिबद्ध लघुभूत होकर विचरण करते हैं। अपनी इच्छानुसार विचरण करने वाले पक्षियों की तरह प्रसन्नतापूर्वक स्वतन्त्र विहार करते हैं । "
“आर्य ! हमारे हस्तगत हुए ये कामभोग, जिन्हें हमने नियन्त्रित समझ रखा है, वस्तुत: क्षणिक हैं । अभी हम कामनाओं में आसक्त हैं, किन्तु जैसे कि पुरोहित — परिवार बन्धनमुक्त हुआ है, वैसे ही हम भी होंगे ।”
- " जिस गीध पक्षी के पास मांस होता है, उसी पर दूसरे मांसभक्षी पक्षी झपटते हैं । जिसके पास मांस नहीं होता है, उस पर नहीं झपटते हैं। अतः मैं भी आमिष अर्थात् मांसोपम सब कामभोगों को छोड़कर निरामिष भाव से विचरण
करूँगी।”
- " संसार को बढ़ाने वाले कामभोगों को गीध के समान जानकर, उनसे वैसे ही शंकित होकर चलना चाहिए, जैसे कि गरुड़ के समीप साँप शंकित होकर चलता है । "
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