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________________ १४-इषुकारीय १४३ ४८. नागो व्व बन्धणं छित्ता अप्पणो वसहि वए। एयं पत्थं महारायं! उसुयारि त्ति मे सुयं ॥ ४९. चइत्ता विउलं रज्जं कामभोगे य दुच्चए। निव्विसया निरामिसा निनेहा निप्परिग्गहा॥ ५०. सम्मं धम्मं वियाणित्ता चेच्चा कामगुणे वरे। तवं पगिज्झऽहक्खायं घोरं घोरपरक्कमा॥ ____"बन्धन को तोड़कर जैसे हाथी अपने निवास स्थान (वन) में चला जाता है, वैसे ही हमें भी अपने वास्तविक स्थान (मोक्ष) में चलना चाहिए। हे महाराज इषुकार ! यही एक मात्र श्रेयस्कर है, ऐसा मैंने ज्ञानियों से सुना है।” उपसंहार विशाल राज्य को छोड़कर, दुस्त्यज कामभोगों का परित्याग कर, वे राजा और रानी भी निर्विषय, निरामिष, नि:स्नेह और निष्परिग्रह हो गए। धर्म को सम्यक् रूप से जानकर, फलत: उपलब्ध श्रेष्ठ कामगुणों को छोड़कर दोनों ही यथोपदिष्ट घोर तप को स्वीकार कर संयम में घोर पराक्रमी बने। इस प्रकार वे सब क्रमश: बुद्ध बने, धर्मपरायण बने, जन्म एवं मृत्यु के भय से उद्विग्न हुए, अतएव दु:ख के अन्त की खोज में लग गए। जिन्होंने पूर्व जन्म में अनित्य एवं अशरण आदि भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित किया था, वे सब राजा, रानी, ब्राह्मण पुरोहित, उसकी पत्नी और। ___ उनके दोनों पुत्र वीतराग अर्हत्शासन में मोह को दूर कर थोड़े समय में ही दुःख का अन्त करके मुक्त हो गए। —ऐसा मैं कहता हूँ। ५१. एवं ते कमसो बुद्धा सव्वे धम्मपरायणा। जभ्भ-मच्चुभउव्विग्गा दुक्स्खस्सन्तगवेसिणो॥ ५२. सासणे विगयमोहाणं पुब्बि भावणभाविया। अचिरेणेव कालेण दुक्खस्सन्तमुवागया॥ ५३. राया सह देवीए माहणो य पुरोहिओ। माहणी दारगा चेव सव्वे ते परिनिव्वुडे । —त्ति बेमि ** *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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