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१४-इषुकारीय
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३९. सव्वं जगं जइ तुहं
सव्वं वावि धणं भवे। सब्वं पि ते अपज्जत्तं नेव ताणाय तं तव॥
-“सारा जगत् और जगत् का समस्त धन भी यदि तम्हारा हो जाय, तो भी वह तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होगा। और वह धन तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकेगा।"
४०. मरिहिसि राय! जया तया वा -“राजन् ! एक दिन इन मनोज्ञ
मणोरमे कामगुणे पहाय। काम गुणों को छोड़कर जब मरोगे, तब एक्को ह धम्मो नरदेव! ताणं एक धर्म ही संरक्षक होगा। हे नरदेव ! न विज्जई अन्नमिहेह किंचि ॥ यहाँ धर्म के अतिरिक्त और कोई रक्षा
करने वाला नहीं है।"
४१. नाहं रमे पक्खिणी पंजरे वा -“पक्षिणी जैसे पिंजरे में सुख
संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं। का अनुभव नहीं करती है, वैसे ही मुझे अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा भी यहाँ आनन्द नहीं है। मैं स्नेह के परिग्गहारंभनियत्तदोसा॥ बंधनों को तोड़कर अकिंचन, सरल,
निरासक्त, परिग्रह और हिंसा से निवृत्त होकर मुनि धर्म का आचरण करूंगी।"
४२. दवग्गिणा जहा रणे
डज्झमाणेसु जन्तुसु। अन्ने सत्ता पमोयन्ति रागद्दोसवसं गया ॥
_-"जैसे कि वन में लगे दावानल में जन्तुओं को जलते देख रागद्वेष के कारण अन्य जीव प्रमुदित होते
४३. एवमेव वयं मूढा
कामभोगेसु मुच्छिया। डज्झमाणं न बुज्झामो रागद्दोसऽग्गिणा जगं॥
-“उसी प्रकार कामभोगों में मूछित हम मूढ़ लोग भी रागद्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को नहीं समझ रहे हैं।"
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