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१४–इषुकारीय
पुरोहित पत्नी३१. सुसंभिया कामगुणा इमे ते -“सुसंस्कृत एवं सुसंगृहीत
संपिण्डिया अग्गरसप्पभूया। काम-भोग रूप प्रचुर विषयरस जो हमें भुंजामु ता कामगुणे पगामं प्राप्त हैं, उन्हें पहले इच्छानुरूप भोग पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं ॥ लें। उसके बाद हम मुनिधर्म के प्रधान
मार्ग पर चलेंगे।"
पुरोहित३२. भुत्ता रसा भोइ ! जहाइ णे वओ -“भवति ! हम विषयरसों को
न जीवियट्ठा पजहामि भोए। भोग चुके हैं। युवावस्था हमें छोड़ रही लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं है। मैं किसी स्वर्गीय जीवन के संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं ॥ प्रलोभन में भोगों को नहीं छोड़ रहा
हूँ। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख को समदृष्टि से देखता हुआ मैं मुनिधर्म का पालन करूँगा।”
पुरोहित-पत्नी३३. मा हू तुमं सोयरियाण संभरे –“प्रतिस्रोत में तैरने वाले बूढ़े
जुण्णो व हंसो पडिसोत्तगामी। हंस की तरह कहीं तुम्हें फिर अपने भुंजाहि भोगाइ मए समाणं बन्धुओं को याद न करना पड़े? अत: दुक्खं खु भिक्खायरियाविहारो॥ मेरे साथ भोगों को भोगो। यह
भिक्षाचर्या और यह ग्रामानुग्राम विहार काफी दुःख-रूप है।"
पुरोहित३४. जहा य भोई ! तणुयं भुयंगो –“भवति ! जैसे साँप अपने
निम्मोयणिं हिच्च पलेइ मुत्तो। शरीर की केंचुली को छोड़कर मुक्तमन एमए जाया पयहन्ति भोए से चलता है, वैसे ही दोनों पुत्र भोगों ते हं कहं नाणुगमिस्समेक्को? को छोड़ कर जा रहे हैं। अत: मैं
अकेला रह कर क्या करूँगा? क्यों न उनका अनुगमन करूँ?"
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