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________________ १३४ उत्तराध्ययन सूत्र अहिज्ज वेए परिविस्स विप्पे –“इसलिए हे पुत्रो, पहले वेदों पुत्ते पडिट्ठप्प गिहंसि जाया! का अध्ययन करो, ब्राह्मणों को भोजन भोच्चाण भोए सह इत्थियाहिं दो और विवाह कर स्त्रियों के साथ आरण्णगा होह मुणी पसत्था॥ भोग भोगो। अनन्तर पुत्रों को घर का भार सौंप कर अरण्यवासी प्रशस्त-श्रेष्ठ मुनि बनना।" १०. सोयग्गिणा आयगुणिन्धणेणं अपने रागादि-गुणरूप इन्धन मोहाणिला पज्जलणाहिएणं। (जलावन) से प्रदीप्त एवं मोहरूप पवन संतत्तभावं परित्तप्पमाणं । से प्रज्वलित शोकाग्नि के कारण लालप्यमाणं बहुहा बहुं च ॥ जिसका अन्त:करण संतप्त तथा परितप्त हो गया है, और जो मोह-ग्रस्त होकर अनेक प्रकार के बहुत अधिक दीनहीन वचन बोल रहा है ११. पुरोहियं तं कमसोऽणुणन्तं -जो एक के बाद एक बार-बार निमंतयन्तं च सुए धणेणं। अनुनय कर रहा है, धन का और जहक्कम कामगुणेहि चेव क्रमप्राप्त काम भोगों का निमन्त्रण दे कुमारगा ते पसमिक्ख वक्कं ॥ रहा है, उस अपने पिता पुरोहित को कुमारों ने अच्छी तरह विचार कर यह वचन कहा पुत्र१२. वेया अहीया न भवन्ति ताणं -“पढ़े हुए वेद भी त्राण नहीं भुत्ता दिया निन्ति तमं तमेणं। होते हैं। यज्ञ-यागादि के रूप में जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं पशुहिंसा के उपदेशक ब्राह्मण भी को णाम ते अणुमन्नेज्ज एयं ॥ भोजन कराने पर तमस्तम (अन्ध काराच्छन्न) स्थिति में ले जाते हैं। औरस पत्र भी रक्षा करने वाले नहीं हैं। अत: आपके उक्त कथन का कौन अनुमोदन करेगा?” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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