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१४–इषुकारीय
१३५. १३. खणमेत्तसोक्खा बहुकालदुक्खा -“वै काम-भोग क्षण भर के
पगामदुक्खा अणिगामसोक्खा। लिए सुख देते है, तो चिरकाल तक संसारमोक्खस्स विपक्खभूया दुःख देते हैं, अधिक दुःख और थोड़ा खाणी अणत्याण उकामभोगा॥ सुख देते हैं। संसार से मुक्त होने में
बाधक हैं, अनर्थों की खान हैं।”
१४. परिव्वयन्ते अणियत्तकामे
अहो य राओ परितप्पमाणे। अन्नप्पमत्ते धणमेसमाणे पप्पोत्ति मच्चं पुरिसे जरं च ॥
-“जो कामनाओं से मुक्त नहीं है, वह अतृप्ति के ताप से जलता हुआ पुरुष रात-दिन भटकता फिरता है और दूसरों के लिए प्रमादाचरण करने वाला वह धन की खोज में लगा हआ एक दिन जरा और मृत्यु को प्राप्त हो जाता
१५. इमं च मे अस्थि इमं च नस्थि -"यह मेरे पास है, यह मेरे पास
इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं। नहीं है। यह मुझे करना है, यह नहीं तं एवमेवं लालप्पमाणं करना है-इस प्रकार व्यर्थ की हरा हरंति त्ति कहं पमाए? बकवास करने वाले व्यक्ति को
अपहरण करने वाली मृत्यु उठा लेती है। उक्त स्थिति होने पर भी प्रमाद कैसा?"
पिता१६. धणं पभूयं सह इत्थियाहिं __"जिसकी प्राप्ति के लिए लोग
सयणा तहा कामगणा पगामा तप करते हैं, वह विपुल धन, स्त्रियां, जवं कए तप्पइ जस्स लोगो स्वजन और इन्द्रियों के मनोज्ञ तं सव्व साहीणमिहेव तुब्भं ।। विषयभोग-तुम्हें यहाँ पर ही स्वाधीन
रूप से प्राप्त हैं। फिर परलोक के इन सुखों के लिए क्यों भिक्षु बनते
हो?"
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