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________________ १४–इषुकारीय १३३ ४. जाई-जरा-मच्चुभयाभिभूया जन्म, जरा और मरण के भय से बहिं विहाराभिनिविट्ठचित्ता। अभिभूत कुमारों का चित्त मुनिदर्शन से संसारचक्कस्स विमोक्खणट्ठा बहिर्विहार अर्थात् मोक्ष की ओर ट्ठण ते कामगुणे विरत्ता ॥ आकृष्ट हुआ, फलत: संसारचक्र से मुक्ति पाने के लिए वे कामगुणों से विरक्त हुए। वियपुत्तगा दोन्नि वि माहणस्स सकम्मसीलस्स पुरोहियस्स सरित्त पोराणिय तत्थ जाइं तहा सुचिण्णं तव-संजमं च ॥ यज्ञ-यागादि कर्म में संलग्न ब्राह्मण (पुरोहित) के ये दोनों प्रिय पुत्र अपने पूर्वजन्म तथा तत्कालीन सुचीर्ण (भलीभाँति आराधित) तप-संयम को स्मरण कर विरक्त हुए। ६. ते कामभोगेसु असज्जमाणा मनुष्य तथा देवता-सम्बन्धी काम माणुस्सएसुं जे यावि दिव्वा। भोगों में अनासक्त, मोक्षाभिलाषी, मोक्खाभिकंखी अभिजायसड़ा श्रद्धासंपन्न उन दोनों पुत्रों ने पिता तायं उवागम्म इमं उदाहु । के समीप आकर उन्हें इस प्रकार कहा असासयं टु इमं विहारं बहअन्तरायं न य दीहमाउं। तम्हा गिर्हसि न रइं लहामो आमन्तयामो चरिस्सामु मोणं॥ -"जीवन की क्षणिकता को हमने जाना है, वह विघ्न बाधाओं से पूर्ण है, अल्पायु है। इसलिए घर में हमें कोई आनन्द नहीं मिल रहा है। अत: आपकी अनुमति चाहते हैं कि हम मुनिधर्म का आचरण करें।” ८. अह तायगो तत्थ मुणीण तेसिं यह सुनकर पिता ने कुमार-मुनियों तवस्स वाघायकरं वयासी। की तपस्या में बाधा उत्पन्न करने वाली इमं वयं वेयविओ वयन्ति यह बात की कि—“पुत्रो ! वेदों के जहा न होई असुयाण लोगो॥ ज्ञाता इस प्रकार कहते हैं जिनको पुत्र नहीं होता है, उनकी गति नहीं होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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