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उत्तराध्ययन सूत्र
एक बार गाँव के बाहर कहीं दूर जगह पर वे खेल रहे थे। अचानक उसी रास्ते से कुछ साधु आए। उन्हें देखकर वे घबरा गये । अब क्या करें, बचने का कोई उपाय नहीं था। अत: वे पास के एक सघन वट-वृक्ष पर चढ़ गये। और छुपे हुए चुपचाप देखने लगे कि साधु क्या करते हैं साधुओं ने पेड़ के नीचे आकर इधर उधर देखा-भाला, रजोहरण से चीटों को एक
ओर सुरक्षित किया, और बड़ी यतना के साथ वट की छाया में बैठ कर भोजन करने लगे। बच्चों ने उनके दयाशील व्यवहार को देखा, उनकी करुणाद्रवित बातचीत सुनी। दोनों बच्चों का भय दूर हुआ। “इसके पहले भी कभी हमने इन्हें देखा है ? ये अपरिचित नहीं हैं ?"-धुंधली-सी स्मृति धीरे-धीरे अवचेतन मन पर रूपाकार होने लगी। वह कुछ और गहरी होकर स्पष्ट होने लगी। और कुछ ही क्षणों में उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हो आया। अब क्या था, भय दूर हुआ, अन्तर्मन प्रसन्नता से भर गया। वे वृक्ष से नीचे उतर कर साधुओं के पास आए। साधुओं ने उन्हें प्रतिबोध दिया। उन्होंने संयम लेने का निर्णय किया और माता-पिता को अपने इस निर्णय की सूचना दी। माता-पिता ने बहुत कुछ समझाया, किन्तु जब देखा कि वे नहीं मान रहे हैं, तो उन्होंने भी उनके साथ संयम लेने का निर्णय किया।
भृगु पुरोहित सम्पन्न था। उनके पास विपुल मात्रा में धन-संपत्ति थी। उत्तराधिकारी के न रहने का प्रश्न खड़ा हुआ कि उसका अब कौन मालिक हो। तत्कालीन परम्परा के अनुसार उसका एक ही समाधान था, कि जिसका कोई नहीं, उसका मालिक राजा है। पुरोहित का त्यक्त धन राज्य-भंडार में जमा किये जाने लगा।
यह सूचना इषुकार की पत्नी कमलावती को मिली। भावनाशील रानी ने राजा को समझाया कि-"जीवन क्षणिक है। इस क्षणिक जीवन के लिए तुम यह क्यों संग्रह कर रहे हो। पुरोहित छोड़ रहा है, और तुम उसको स्वीकार कर रहे हो। यह तो दूसरों के वमन को चाटने के समान है, राजन् ! धन मांस के टुकड़े के समान है। जिस प्रकार मांस-खण्ड पर चील, कौवे और गीध झपटते हैं, उसी प्रकार धनलोलुप व्यक्ति धन पर झपटते हैं। अच्छा है, कि हम इस क्षणनश्वर धन को छोड़कर, जो शाश्वत धन है, उसकी खोज करें। यहाँ के सभी सुख यहीं छोड़ जाने हैं। यहाँ से जाते समय परभव में एक धर्म ही साथ होगा।"
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