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उत्तराध्ययन सूत्र
२६. उवणिज्जई जीवियमप्पमायं -“राजन् ! कर्म किसी प्रकार का
वण्णं जरा हरइ नरस्स रायं! प्रमाद-भूल किए बिना जीवन को हर पंचालराया! वयणं सुणाहि क्षण मृत्यु के समीप ले जा रहा है, और मा कासि कम्माइं महालयाई। यह जरा-वृद्धावस्था मनुष्य की कान्ति
का हरण कर रही है। पांचालराज ! मेरी बात सुनो। प्रचुर अपकर्म मत करो।"
चक्रवर्ती
२७. अहं पि जाणामि जहेह साहू! -“हे साधो ! जैसे कि तुम मुझे
जं मे तुमं साहसि वक्कमेयं। बता रहे हो, मैं भी जानता हूँ कि ये भोगा इमे संगकरा हवन्ति कामभोग बन्धनरूप हैं, किन्तु आर्य ! जे दुज्जया अज्जो ! अम्हारिसेहिं ॥ हमारे-जैसे लोगों के लिए तो ये बहुत
दुर्जय हैं।”
२८. हत्थिणपुरम्मि
दट्टणं नरवई कीमभोगेसु नियाणमसुहं
चित्ता! महिड्रियं । गिद्धेणं कडं॥
–“चित्र ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि वाले चक्रवर्ती राजा को देखकर भोगों में आसक्त होकर मैंने अशुभ निदान किया था।"
२९. तस्स मे अपडिकन्तस्स
इमं एयारिसं फलं । जाणमाणो वि जं धम्म कामभोगेसु मुच्छिओ॥
____“मैंने उस निदान का प्रतिक्रमण नहीं किया। उसी कर्म का यह फल है कि धर्म को जानता हुआ भी मैं कामभोगों में आसक्त हूँ, उन्हें छोड़ नहीं सकता हूँ।"
३०. नागो जहा पंकजलावसन्नो “जैसे पंकजल-दलदल में फँसा
टुं थलं नाभिसमेइ तीरं। हाथी स्थल को देखकर भी किनारे पर एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा नहीं पहुँच पाता है, वैसे ही हम न भिक्खुणो मग्गमणुव्वयामो॥
कामभोगों में आसक्त जन जानते हुए भी भिक्षुमार्ग का अनुसरण नहीं कर पाते हैं।"
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