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________________ १३-चित्र-सम्भूतीय १२५ २१. इह जीविए राय ! असासयम्मि -“राजन् ! इस अशाश्वत मानव धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। जीवन में जो बिपुल पुण्यकर्म नहीं से सोयई मच्चुमुहोवणीए करता है, वह मृत्यु के आने पर धम्मं अकाऊण परंसि लोए॥ पश्चात्ताप करता है और धर्म न करने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है।" २२. जहेह सीहो व मियं गहाय -"जैसे कि यहाँ सिंह हरिण को मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले। पकड़कर ले जाता है, वैसे ही न तस्स माया व पिया व भाया अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाता कालम्मि तम्मिऽसहरा भवंति ॥ है। मृत्यु के समय में उसके माता-पिता और भाई-बन्धु कोई भी मृत्युदुःख में अंशधर-हिस्सेदार नहीं होते हैं।" २३. न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ -"उसके दःख को न जाति के न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा। लोग बँटा सकते हैं, और न मित्र, एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं पुत्र तथा बन्धु ही। वह स्वयं कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ अकेला ही प्राप्त दु:खों को भोगता है, क्योंकि कर्म कर्ता के ही पीछे चलता है।" २४. चिच्चा दुपयं च चउप्पयं च -"द्विपद-सेवक, चतुष्पद-पशु, खेत्तं गिहं धणधनं च सव्वं। खेत, घर, धन-धान्य आदि सब कुछ कम्मप्पबीओ अवसो पयाइ छोड़कर यह पराधीन जीव अपने कृत परं भवं सुन्दर पावगं वा ।। कर्मों को साथ लिए सुन्दर अथवा असुन्दर परभव को जाता है।" २५. तं इक्कगं तुच्छसरीरगं से चिईगयं डहिय उ पावगेणं! भज्जा यपुत्ता विय नायओ य दायारमन्नं अणुसंकमन्ति॥ -“जीवरहित उस एकाकी तुच्छ शरीर को चिता में अग्नि से जलाकर स्त्री, पुत्र और जाति-जन किसी अन्य आश्रयदाता का अनुसरण करते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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