________________
१३-चित्र-सम्भूतीय
१२७
मुनि३१. अच्चेइ कालो तूरन्ति राइओ -"राजन् ! समय व्यतीत हो रहा
न यावि भोगा पुरिसाण निच्चा। है, रातें दौड़ती जा रही हैं। मनुष्य के उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति भोग नित्य नहीं हैं। कामभोग दुमं जहा खीणफलं व पक्खी॥ क्षीणपुण्य वाले व्यक्ति को वैसे ही
छोड़ देते हैं, जैसे कि क्षीण फल वाले
वृक्ष को पक्षी।" ३२. जइ तं सि भोगे चइडं असत्तो -“राजन् ! यदि तु कामभोगों को
अज्जाई कम्माइं करेहि रायं! छोड़ने में असमर्थ है, तो आर्य कर्म ही धम्मे ठिओ सव्वपयाणकम्पी कर । धर्म में स्थित होकर सब जीवों तो होहिसि देवो इओ विउव्वी ॥ के प्रति दया करने वाला बन, जिससे
कि तु भविष्य में क्रियशरीरधारी देव
हो सके।” ३३. न तुज्झ भोगे चइऊण बुद्धी -“भोगों को छोड़ने की तेरी
गिद्धो सि आरम्भ-परिग्गहेसु। बुद्धि नहीं है । तू आरम्भ और परिग्रह मोहं कओ एत्तिउ विप्पलावो में आसक्त है। मैंने व्यर्थ ही तुझ से गच्छामि रायं ! आमन्तिओऽसि ॥ इतनी बातें कीं, तुझे सम्बोधित किया।
राजन् ! मैं जा रहा हूँ।" ३४. पंचालराया वि य बम्भदत्तो पांचाल देश का राजा ब्रह्मदत्त
साहुस्स तस्स वयणं अकाउं। मुनि के वचनों का पालन न कर सका, अणुत्तरे भंजिय कामभोगे अत: अनुत्तर भोगों को भोगकर अनुत्तर
अणुत्तरे सो नरए पविट्ठो॥ (सप्तम) नरक में गया। ३५. चित्तो वि कामेहि विरत्तकामो कामभोगों से निवृत्त, उग्र चारित्री
उदग्गचारित्त-तवो महेसी। एवं तपस्वी महर्षि चित्र अनुत्तर संयम अणुत्तरं संजम पालड़ता का पालन करके अनुत्तर सिद्धिगति को अणुत्तरं सिद्धिगई गओ॥ प्राप्त हुए। -ति बेमि।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
*****
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org