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१३-चित्र-सम्भूतीय
१२३ ११. जाणासि संभूय! महाणुभागं -“सम्भूत ! जैसे तुम अपने
महिड़ियं पुण्णफलोववेयं। आपको भाग्यवान्, महान् ऋद्धि से चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं! संपन्न और पुण्यफल से युक्त समझते इडी जुई तस्स वि य प्पभूया ॥ हो, वैसे चित्र को भी समझो। राजन् !
उसके पास भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति रही है।
१२. महत्थरूवा वयणऽप्पभूया -“स्थविरों ने जनसमुदाय में
गाहाणुगीया नरसंघमझे। अल्पाक्षर, किन्तु महार्थ—सारगर्भित जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया गाथा कही थी, जिसे शील और गुणों इहऽज्जयन्ते समणो म्हि जाओ॥ से युक्त भिक्षु यत्न से अर्जित–प्राप्त
करते हैं। उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया।"
चक्रवर्ती
१३. उच्चोदए महु कक्के य बम्भे -उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और
पवेइया आवसहा य रम्मा। ब्रह्मा-ये मुख्य प्रासाद तथा और भी इमं गिहं चित्तधणप्पभूयं अनेक रमणीय प्रासाद हैं। पांचाल देश पसाहि पंचालगुणोववेयं ॥ के अनेक विशिष्ट पदार्थों से युक्त तथा
प्रचुर एवं विविध धन से परिपूर्ण इन गृहों को स्वीकार करो।"
१४. नट्टेहि गीएहि य वाइएहिं -"भिक्षु ! तुम नाट्य, गीत और
नारीजणाइं परिवारयन्तो। वाद्यों के साथ स्त्रियों से घिरे हुए इन भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू! भोगों को भोगो। मुझे यही प्रिय है। मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं ॥ प्रव्रज्या निश्चय से दुःखप्रद है।"
१५. तं पुवनेहेण कयाणुरागं
नराहिवं कामगुणेसु गिद्ध। धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था॥
उस राजा के हितैषी धर्म में स्थित चित्र मुनि ने पूर्व भव के स्नेह से अनुरक्त एवं कामभोगों में आसक्त राजा को इस प्रकार कहा
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