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________________ १२२ ५. ७. ८. आसिमो भायरा दो वि अन्नमन्नवसाणुगा । अन्नमन्नमणूरत्ता अन्नमन्नहिएसिणो ॥ दासा दसणे आसी मिया कालिंजरे नगे । हंसा मयंगतीरे य सोवागा कासिभूमिए । देवा य देवलोगम्मि आसि अम्हे महिड्डिया । इमा नो छट्टिया जाई अन्नमन्त्रेण जा विणा ।। कम्मा नियाणपगडा मेरा ! विचिन्तिया । तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया || ९. सच्चसोयप्पगडा कम्मा मए पुरा कडा । ते अज्ज परिभुंजामो किं न चित्ते वि से तहा ? १०. सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं कडाणकम्माण न मोक्ख अस्थि । अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहि आया ममं पुण्णफलोववेए । Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र चक्रवर्ती “ इसके पूर्व हम दोनों परस्पर वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी भाई-भाई थे ।” - "हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत-गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चाण्डाल थे।" - " हम दोनों देवलोक में महान् ऋद्धि से सम्पन्न देव थे । यह हमारा छठवाँ भव है, जिसमें हम एक दूसरे को छोड़कर पृथक्-पृथक् पैदा हुए हैं ।” मुनि - " राजन् ! तूने निदानकृत (भोगा-भिलाषारूप) कर्मों का विशेष रूप से चिन्तन किया। उसी कर्मफल के विपाक से हम अलग-अलग पैदा हुए हैं । " चक्रवर्ती— - "चित्र ! पूर्व जन्म में मेरे द्वारा किए गए सत्य और शुद्ध कर्मों के फल को आज मैं भोग रहा हूँ, क्या तुम भी वैसे ही भोग रहे हो ? " मुनि - " मनुष्यों के द्वारा समाचरित सब सत्कर्म सफल होते हैं । किए हुए कर्मों के फल को भोगे बिना मुक्ति नहीं है । मेरी आत्मा भी उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्यफल से युक्त रही है । " 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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