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५.
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८.
आसिमो भायरा दो वि
अन्नमन्नवसाणुगा । अन्नमन्नमणूरत्ता अन्नमन्नहिएसिणो ॥
दासा दसणे आसी मिया कालिंजरे नगे ।
हंसा मयंगतीरे य सोवागा कासिभूमिए ।
देवा य देवलोगम्मि आसि अम्हे महिड्डिया । इमा नो छट्टिया जाई अन्नमन्त्रेण जा विणा ।।
कम्मा
नियाणपगडा
मेरा ! विचिन्तिया । तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया ||
९. सच्चसोयप्पगडा
कम्मा मए पुरा कडा । ते अज्ज परिभुंजामो किं न चित्ते वि से तहा ?
१०. सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं कडाणकम्माण न मोक्ख अस्थि । अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहि आया ममं पुण्णफलोववेए ।
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उत्तराध्ययन सूत्र
चक्रवर्ती
“ इसके पूर्व हम दोनों परस्पर वशवर्ती, परस्पर अनुरक्त और परस्पर हितैषी भाई-भाई थे ।”
- "हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत-गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चाण्डाल थे।"
- " हम दोनों देवलोक में महान् ऋद्धि से सम्पन्न देव थे । यह हमारा छठवाँ भव है, जिसमें हम एक दूसरे को छोड़कर पृथक्-पृथक् पैदा हुए हैं ।”
मुनि
- " राजन् ! तूने निदानकृत (भोगा-भिलाषारूप) कर्मों का विशेष रूप से चिन्तन किया। उसी कर्मफल के विपाक से हम अलग-अलग पैदा हुए हैं । "
चक्रवर्ती—
- "चित्र ! पूर्व जन्म में मेरे द्वारा किए गए सत्य और शुद्ध कर्मों के फल को आज मैं भोग रहा हूँ, क्या तुम भी वैसे ही भोग रहे हो ? "
मुनि
- " मनुष्यों के द्वारा समाचरित सब सत्कर्म सफल होते हैं । किए हुए कर्मों के फल को भोगे बिना मुक्ति नहीं है । मेरी आत्मा भी उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्यफल से युक्त रही है । "
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