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उत्तराध्ययन सूत्र
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एक बार वाराणसी के किसी उत्सव में चित्र और सम्भूत दोनों गए थे। उनके नृत्य और गीत उत्सव में विशेष आकर्षण केन्द्र रहे। इतना आकर्षण बढ़ा कि स्पृश्यास्पृश्य का भेद ही समाप्त हो गया। यह बात उस समय के लोगों को काफी अखरी । उन्होंने राजा के पास शिकायत की कि हमारा धर्म भ्रष्ट हो रहा है। इस पर राजा ने दोनों लड़कों को उत्सव में से बाहर निकाल दिया।
एक बार वे रूप बदल कर पुन: किसी उत्सव में आए। उनके मुँह से संगीत के विलक्षण स्वर सुनकर लोगों ने उन्हें पहचान लिया। जाति-मदान्ध लोगों ने उन्हें बुरी तरह मार पीट कर नगर से ही निकाल दिया। इस प्रकार अपमानित एवं तिरस्कृत होने पर उन्हें अपने जीवन के प्रति घृणा हुई। उन्होंने आत्महत्या का निर्णय किया और मरने के लिए पहाड़ पर चले गये। पहाड़ पर से छलांग लगाकर मरने की तैयारी में ही थे कि एक मुनि ने उन्हें देख लिया, समझाया और उन्हें प्रतिबोध दिया। वे समझ गये और साधु उन गये।
एक बार दोनों मुनि हस्तिनापुर आए। सम्भूत भिक्षा के लिए घूमते हुए नमुचि के यहाँ पहुँच गये। नमुचि ने देखा तो पहचान गया। उसे सन्देह हुआ कि कहीं मुनि मेरा वह रहस्य प्रकट न करदें। उसने उन्हें मार पीट कर नगर से निकालना चाहा । नमुचि के कहने पर लोगों ने उन्हें बहुत मारा पीटा। मार सहते-सहते आखिर मुनि शान्ति खो बैठे। क्रोध में तेजोलेश्या फूट पड़ी, सारा नगर धुएँ से आच्छन्न हो गया। भयभीत लोगों ने अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी। सूचना मिली तो चक्रवर्ती सनत्कुमार भी पहुँचे। इधर चित्रमुनि को भी ज्यों ही यह सूचना मिली, तो वे भी घटनास्थल पर पहुँचे और सम्भूत को बहुत प्रिय वचनों से समझाया। मुनि शान्त हुए।
सनत्कुमार के वैभव को देखकर सम्भूत मुनि ने निदान किया कि 'मैं भी अपने तप के प्रभाव से चक्रवर्ती बनें।' दोनों मुनि अन्यत्र विहार कर गए। तपः साधना करते रहे । अन्तिम समय में अनशत व्रत लेकर दोनों ने साथ ही शरीर छोड़ा, और वहाँ से देवलोक में उत्पन्न हुए। छह जन्म साथ-साथ रहने के बाद देवलोक से आकर उन्होंने अलग-अलग जन्म लिया। सम्भूत निदानानुसार कांपिल्य नगर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बना।
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