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उत्तराध्ययन सूत्र
रुद्रदेव४०. कहं चरे ? भिक्खु ! वयं जयामो? . “हे भिक्षु ! हम कैसे प्रवृत्ति करें ?
पावाइ कम्माइ पणुल्लयामो? कैसे यज्ञ करें? कैसे पाप कर्मों को दूर अक्खाहिणे संजय!जक्खपडया! करें? हे यक्षपूजित संयत ! हमें बताएँ कहं सुइट्ठ कुसला वयन्ति? कि तत्त्वज्ञ पुरुष श्रेष्ठ यज्ञ कौन-सा
बताते हैं?"
मुनि४१. छज्जीवकाए असमारभन्ता ---"मन और इन्द्रियों को संयमित
मोसं अदत्तं च असेवमाणा। रखने वाले मुनि पृथ्वी आदि छह परिग्गहं इथिओ माण-मायं जीवनिकाय की हिंसा नहीं करते हैं. एयं परिन्नाय चरन्ति दन्ता॥
असत्य नहीं बोलते हैं, चोरी नहीं करते हैं; परिग्रह, स्त्री, मान और माया को स्वरूपत: जानकर एवं छोड़कर विचरण
करते हैं।" ४२. सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं -जो पाँच संवरों से पूर्णतया
इह जीवियं अणवकंखमाणो। संवृत होते हैं, जो जीवन की आकांक्षा वोसट्टकाओ सुइचत्तदेहो नहीं करते हैं, जो शरीर का अर्थात् महाजयं जयई जन्नसिटुं॥ शरीर की आसक्ति का परित्याग करते
हैं, जो पवित्र हैं, जो विदेह हैं-देह भाव में नहीं हैं, वे वासनाओं पर विजय पाने वाला महाजयी श्रेष्ठ यज्ञ करते
रुद्रदेव४३. के ते जोई ? के व ते जोइठाणे? -“हे भिक्षु ! तुम्हारी ज्योति
का ते सुया? किं व ते कारिसंग? (अग्नि) कौनसी है ? ज्योति का स्थान एहा य ते कयरा सन्ति? भिक्ख! कौनसा है ? घृतादिप्रक्षेपक कड़छी कयरेण होमेण हुणासि जोडं? क्या है ? अग्नि को प्रदीप्त करने वाले
करीषांग (कण्डे) कौनसे हैं? तुम्हारा ईंधन और शांतिपाठ कौन-सा है ?
और किस होम से-हवन की प्रक्रिया से आप ज्योति को प्रज्वलित करते हैं?"
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