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१२-हरिकेशीय
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४४. तवो जोई जीवो जोइठाणं मुनि
जोगा सुया सरीरं कारिसंग। -“तप ज्योति है। जीव-आत्मा कम्म एहा संजमजोग सन्ती ज्योति का स्थान है। मन, वचन और होमं हुणामी इसिणं पसत्यं ।। काया का योग कड़छी है। शरीर कण्डे
हैं। कर्म ईन्धन है। संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है। ऐसा मैं प्रशस्त यज्ञ
करता हूँ ।” ४५. के ते हरए ? के य ते सन्तितित्थे ? रुद्रदेव
कर्हिसि हाओ व रयं जहासि? -“हे यक्षपूजित संयत ! हमें आइक्खणे संजय! जक्खपूइया ! बताइए कि तुम्हारा ह्रद-द्रह कौनसा इच्छामो नाउं भवओ सगासे॥ है ? शांति-तीर्थ कौनसे हैं? तुम कहाँ
स्नान कर रज-मलिनता दूर करते
हो? हम आप से जानना चाहते हैं ?" ४६. धम्मे हरए बंभे सन्तितित्थे मुनि
अणाविले अत्तपसन्नलेसे। -"आत्मभाव की प्रसन्नतारूप जहिसि हाओ विमलो विसुद्धो अकलुष लेश्यावाला धर्म मेरा ह्रद है, सुसीइभूओ पजहामि दोसं॥ जहाँ स्नानकर मैं विमल, विशुद्ध एवं
शान्त होकर कर्मरज को दूर करता
४७. एयं सिणाणं कुसलेहि दिटुं -“कुशल पुरुषों ने इसे ही स्नान
महासिणाणं इसिणं पसत्थं। कहा है। ऋषियों के लिए यह महान् जहिंसि व्हाया विमल विसुद्धा स्नान ही प्रशस्त है ! इस धर्महद में महारिसी उत्तम ठाण पत्ते॥ स्नान करके महर्षि विमल और विशुद्ध
होकर उत्तम स्थान को प्राप्त हुए हैं।” --त्ति बेमि।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
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