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१२ - हरिकेशीय
३५. इमं च मे अत्थि पभूयमन्नं तं भुंजसू अम्ह अणुग्गहट्ठा । 'बाढं' ति पडिच्छइ भत्तपाणं मासस्स उ पारणए महप्पा ॥
३६. तहियं
गन्धोदय- पुप्फवा
दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा । पहयाओ दुन्दुहीओ सुरेहिं आगासे अहो दाणं च घुट्टं ॥ ३७. सक्खं खुदीसइ तवोविसेसो
न दीसई जाइविसेस कोई । सोवागपुत्ते हरिएस साहू जस्सेरिस्सा इड्डि महाणुभागा ।।
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३८. किं माहणा ! जो समारभन्ता उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं न तं सुदिनं कुसला वयन्ति ॥
३९. कुसं च जूवं तणकट्ठमरिंग सायं च पायं उदगं फुसन्ता । पाणाइ भूयाइ विहेडयन्ता भुज्जो वि मन्दा ! पगरेह पावं ॥
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- " यह हमारा प्रचुर अन्न है । हमारे अनुग्रहार्थ इसे स्वीकार करें ।” - पुरोहित के इस आग्रह पर महान् आत्मा मुनि ने स्वीकृति दी और एक मास की तपश्चर्या के पारणे के लिए आहार- पानी ग्रहण किया ।
देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प एवं दिव्य धन की वर्षा की और दुन्दुभियाँ बजाईं, आकाश में 'अहो दानम्' का घोष किया ।
प्रत्यक्ष में तप की ही विशेषतामहिमा देखी जा रही है, जाति की कोई विशेषता नहीं दीखती है। जिसकी ऐसी महान् चमत्कारी ऋद्धि है, वह हरिकेश मुनि श्वपाकपुत्र है - चाण्डाल बेटा है
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मुनि
- " ब्राह्मणो ! अग्नि का समारम्भ (यज्ञ) करते हुए क्या तुम बाहर से - जल से शुद्धि करना चाहते हो ? जो बाहर से शुद्धि को खोजते हैं उन्हें कुशल पुरुष सुदृष्ट — सम्यग् द्रष्टा नहीं कहते हैं । "
- “कुश (डाभ), यूप (यज्ञस्तंभ), तृण, काष्ठ और अग्नि का प्रयोग तथा प्रात: और संध्या में जल का स्पर्शइस प्रकार तुम मन्द-बुद्धि लोग, प्राणियों और भूत (वृक्षादि) जीवों का विनाश करते हुए पापकर्म कर रहे हो ।”
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