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१२-हरिकेशीय
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२५. ते घोररूवा ठिय अन्तलिक्खे आकाश में स्थित भयंकर रूप
असुरा तहिं तं जणं तालयन्ति। वाले असुरभावापन्न क्रुद्ध यज्ञ उन को ते भिन्नदेहे रुहिरं वमन्ते प्रताड़ित करने लगे। कुमारों को पासित्तु भद्दा इणमाहु भुज्जो॥ क्षत-विक्षत और खून की उल्टी करते
देखकर भद्रा ने पुन: कहा२६. गिरि नहेहिं खणह “जो भिक्षु का अपमान करते हैं, वे
अयं दन्तेहिं खायह। नखों से पर्वत खोदते हैं, दाँतों से लोहा जायतेयं पाएहि हणह चबाते हैं और पैरों से अग्नि को जे भिक्खं अवमन्नह ।। कुचलते हैं।"
२७. आसीविसो उग्गतवो महेसी -"महर्षि आशीविष हैं, घोर
घोरव्वओ घोरपरक्कमो य। तपस्वी हैं, घोर व्रती हैं और घोर अगणिं व पक्खन्द पयंगसेणा पराक्रमी हैं। जो लोग भिक्षाकाल में जे भिक्खुयं भत्तकाले वहेह ।। मुनि को व्यथित करते हैं, वे पतंगों की
भाँति अग्नि में गिरते हैं।"
२८. सीसेण एयं सरणं उवेह -“यदि तुम अपना जीवन और
समागया सव्वजणेण तब्भे। धन चाहते हो, तो सब मिलकर, जड़ इच्छह जीवियं वा धणं वा नतमस्तक होकर, इनकी शरण लो। लोग पि एसो कुविओडहेज्जा ॥ तुम्हें मालूम होना चाहिए—यह ऋषि
कुपित होने पर समूचे विश्व को भी भस्म कर सकता है।”
२९. अवहेडिय पिट्ठसउत्तमंगे मुनि को प्रताड़ित करने वाले छात्रों
पसारियाबाहु अकम्मचेटे। के सिर पीठ की ओर झुक गये थे। निब्भेरियच्छे रुहिरं वमन्ते । उनकी भुजाएँ फैल गई थीं। वे निश्चेष्ट उड्ढे मुहे निग्गयजीह-नेत्ते। हो गये थे। उनकी आँखें खुली की
खली रह गई थीं। उनके मुँह से रुधिर निकलने लगा था। उनके मुँह ऊपर को हो गये थे। उनकी जीभे और आँखें बाहर निकल आयी थीं।
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