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१२-हरिकेशीय
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१५. तुब्मेत्य भो! भारधरा गिराणं “हे ब्राह्मणो ! इस संसार में आप
अटुं न जाणाह अहिज्ज वेए। केवल वाणी का भार ही वहन कर रहे उच्चावयाइं मुणिणो चरन्ति हो। वेदों को पढ़कर भी उनके अर्थ बाई तु खेत्ताई सुपेसलाई॥ को नहीं जानते हो। जो मुनि भिक्षा के
लिए समभावपूर्वक ऊँच-नीच घरों में
जाते हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र है।" १६. अज्झावयाणं पडिकूलभासी रुद्रदेव
पभाससे किंनु सगासि अम्हं। हमारे सामने अध्यापकों के प्रति अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं प्रतिकूल बोलने वाले निर्ग्रन्थ ! क्या न य णं दहामु तुमं नियण्ठा॥ बकवास कर रहा है, यह अन्न जल भले
ही सड़ कर नष्ट हो जाय, पर हम तुझे नहीं देंगे।"
यक्ष
१७. समिईहि मज्झं सुसमाहियस्स ।
गुत्तीहि गुत्तस्स जिइन्दियस्स। “मैं समितियों से सुसमाहित हूँ, जड़ मे न दाहित्य अहेसणिज्जं गुप्तियों से गुप्त हूँ, और जितेन्द्रिय हूँ। किमज्ज जन्नाण लहित्थ लाहं? यह एषणीय आहार यदि तुम मुझे नहीं
देते हो, तो आज इन यज्ञों का तुम क्या
लाभ लोगे?" १८. के एत्थ खत्ता उवजोइया वा रुद्रदेव
अज्झावया वा सह खण्डिएहिं ।। “यहाँ कोई हैं क्षत्रिय, उपज्योतिषएवं खु दण्डेण फलेण हन्ता रसोइये, अध्यापक और छात्र, जो इस कण्ठम्मि घेत्तणखलेज्ज जो णं? निर्ग्रन्थ को डण्डे से, फलक से पीट कर
और कण्ठ पकड़ कर यहाँ से निकाल
१९. अज्झावयाणं वयणं सुणेत्ता अध्यापकों के वचन सुनकर बहुत
उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा। से कुमार दौड़ते हुए वहाँ आए और दण्डेहि वित्तेहि कसेहि चेव दण्डों से, बेतों से, चाबुकों से उस ऋषि समागया तं इसि तालयन्ति ॥ को पीटने लगे।
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