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१०. वियरिज्जइ खज्जइ भुज्जई य अन्नं भूयं भवयाणमेयं । जाणाहि मे जायणजीविणु ति सेसावसेसं लभऊ तवस्सी ॥
११. उवक्खड
अतट्ठियं
भोयण माहणाणं
रुद्रदेव
न
सिद्धमिगपक्खं । “ यह भोजन केवल ब्राह्मणों के ऊ वयं एरिसमन्न-पाणं लिए तैयार किया गया है । यह दाहामु तुज्झं किमिहं ठिओ सि ? ।। एकपक्षीय है, अत: दूसरों के लिए अदेय है । हम तुझे यह यज्ञार्थनिष्पन्न अन्न जल नहीं देंगे। फिर तू यहाँ क्यों खड़ा है ?"
१२. थलेसु बीयाइ ववन्ति कासगा तहेव निन्नेसु य आससाए । एयाए सद्धाए दलाह मज्झं आराहए पुण्णमिणं खु खेत्तं ॥
।
१३. खेत्ताणि अम्हं विइयाणि लोए जहिं पकिण्णा विरुहन्ति पुण्णा जे माहणा जाइ-विज्जोववेया ताई तु खेत्ताई सुपेसलाई ।
१४. कोहो य माणो य वहो य जेसिं मोसं अदत्तं च परिग्गहं च । ते माहणा जाइविज्जाविहूणा बाई तु खेत्ताई सुपावयाई ||
उत्तराध्ययन सूत्र
“यहाँ प्रचुर अन्न दिया जा रहा है, खाया जा रहा है, उपभोग में लाया जा रहा है। आपको मालूम होना चाहिए, मैं भिक्षाजीवी हूँ । अतः बचे हुए अन्न में से कुछ इस तपस्वी को भी मिल जाए ।"
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यक्ष
" अच्छी फसल की आशा से किसान जैसे ऊँची भूमि में बीज बोते हैं, वैसे ही नीची भूमि में भी बोते हैं । इस कृषक दृष्टि से ही मुझे दान दो। मैं भी पुण्यक्षेत्र हूँ, अत: मेरी भी आराधना करो ।”
रुद्रदेव—
" संसार में ऐसे क्षेत्र हमें मालूम हैं, जहाँ बोये गए बीज पूर्ण रूप से उग आते हैं । जो ब्राह्मण जाति और विद्या से सम्पन्न हैं, वे ही पुण्य-क्षेत्र हैं ।”
यक्ष --
" जिनमें क्रोध, मान, हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह हैं, वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विहीन पापक्षेत्र हैं ।”
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