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________________ १२-हरिकेशीय १०७ ५. जाईमयपडिथद्धा हिंसगा अजिइन्दिया। अबम्भचारिणो बाला इमं वयणमब्बवी-॥ जातिमद से प्रतिस्तब्ध-हप्त, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी लोगों ने इस प्रकार कहा ६. कयरे आगच्छइ दित्तरूवे काले विगराले फोक्कनासे। ओमचेलए पंसुपिसायभूए संकरदूसं परिहरिय कण्ठे। ___ “वीभत्स रूप वाला, काला, विकराल, बेडोल मोटी नाक वाला, अल्प एवं मलिन वस्त्र वाला, धूलि-धूसरित होने से भूत की तरह दिखाई देने वाला (पांशुपिशाच), गले में संकरदृष्य (कूड़े के ढेर पर से उठा लाये जैसा निकृष्ट वस्त्र) धारण करने वाला यह कौन आ रहा है?" ७. कयरे तुम इय अदंसणिज्जे “अरे अदर्शनीय ! तू कौन है ? काए व आसा इहमागओ सि। यहाँ किस आशा से आया है तू? गंदे ओमचेलगा पंसुपिसायभूया और धूलि-धूसरित वस्त्र से तू अधनंगा गच्छ क्खलाहि किमिह ठिओसि? पिशाच की तरह दीख रहा है। जा, भाग यहाँ से । यहाँ क्यों खड़ा है?" ८. जक्खो तहिं तिन्दुयरुक्खवासी उस समय महामुनि के प्रति अणुकम्पओ तस्स महामुणिस्स। अनुकम्पा का भाव रखने वाले तिन्दुक पच्छायइत्ता नियगं सरीरं वृक्षवासी यक्ष ने अपने शरीर को इमाइं वयणाइमुदाहरित्या-॥ छुपाकर (महामुनि के शरीर में प्रवेश कर) ऐसे वचन कहे समणो अहं संजओ बम्भयारी "मैं श्रमण हूँ। मैं संयत हूँ। मैं विरओ धणपयणपरिग्गहाओ। ब्रह्मचारी हूँ। मैं धन, पचन भोजन परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले पकाना) और परिग्रह का त्यागी हूँ। अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि॥ भिक्षा के समय दूसरों के लिए निष्पन्न आहार के लिए यहाँ आया हूँ ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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