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________________ १०४ उत्तराध्ययन सूत्र लिया। उसके विकास में जाति अवरोध नहीं डाल सकी। वस्तुतः कुल की उच्चता से गुणों की प्राप्ति नहीं होती है । गुणों का सम्बन्ध व्यक्ति के जागरण के साथ है। इसका स्पष्ट अर्थ है—उच्च कुल, उच्च वर्ण अथवा उच्च जाति गुणों को जन्म नहीं देती है । और न ये किसी को दुर्गति से बचा ही सकते हैं। उत्थान हो या पतन, विकास हो या ह्रास, सबके लिए व्यक्ति ही स्वयं उत्तरदायी है । हरिकेशमुनि साधना में संलग्न थे । तप से उनका शरीर कृश हो गया था । एक बार वे वाराणसी के एक उद्यान में ठहरे थे। वहां तिन्दुक वृक्ष निवासी एक यक्ष था। मुनि के तप से प्रभावित होकर वह अपने साथी यक्षों के साथ मुनि की सेवा में रहने लगा । एक दिन वाराणसी के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा यक्ष की पूजा करने के लिए मंदिर में आई थी। वहां उसने हरिकेश मुनि को देखा। उनकी कुरूपता को देखकर उसका मन घृणा से भर गया । और उसने उन पर थूक दिया । राजकुमारी के द्वारा किये गए मुनि के इस अपमान को यक्ष सहन नहीं कर सका। अत: वह उसके शरीर में प्रविष्ट हो गया और उसे अस्वस्थ कर दिया । चिकित्सकों के उपचार के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हो सकी। आखिर एक दिन यक्ष ने राजकुमारी के मुंह से कहा – “कुछ भी करो । मैं इसे ठीक नहीं होने दूंगा । इसने घोर तपस्वी हरिकेशबल मुनि का अपमान किया है। इसका इसे प्रायश्चित्त करना पड़ेगा । और वह प्रायश्चित्त होगा, मुनि के साथ इसका विवाह । अगर राजा ने यह विवाह स्वीकार नहीं किया तो मैं राजकुमारी को जीवित नहीं रहने दूंगा ।" राजा ने यह बात स्वीकार की। मुनि की सेवा में जाकर अपने अपराध की क्षमा माँगी और भद्रा के साथ विवाह के लिए प्रार्थना की। मुनि ने कहा - " मेरा कोई अपमान नहीं हुआ है । मैं विरक्त हूँ। मैं किसी भी तरह विवाह की प्रार्थना स्वीकार नहीं कर सकता । " राजा निराश लौट आया। 'ब्राह्मण भी ऋषि का ही रूप है' - इस विचार के आधार पर भद्रा का विवाह राजपुरोहित रुद्रदेव ब्राह्मण के साथ कर दिया गया । हरिकेशबल मुनि मासोपवास (एक महीने का लम्बा अनशन तप) की समाप्ति पर, भिक्षा की खोज में, एक दिन यज्ञमण्डप में पहुँचे। वहां रुद्रदेव पुरोहित यज्ञ करवा रहे थे । यज्ञशाला में राजकुमारी के विवाह के निमित्त से ही भोजन बना था। मुनि ने भिक्षा की याचना की। लेकिन ब्राह्मणों ने भोजन देने से इन्कार कर दिया और उनको अपमानित करके निकालने का प्रयत्न किया। मुनि की सेवा में जो यक्ष था, वह ब्राह्मणों के व्यवहार से क्रुद्ध हो गया, अतः उसने उन्हें बुरी तरह प्रताड़ित किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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