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________________ १२ हरिकेशीय ज्योति मिट्टी के दिए में भी प्रकट हो सकती है। आध्यात्मिक विकास चाण्डाल जाति के व्यक्ति में भी हो सकता है। पूर्वजन्म के जातीय अहंकार के कारण हरिकेशबल चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुआ था। वह स्वभाव से कठोर और शरीर से भी कुरूप था। परिवार, पड़ोसी और गाँव के लोग सभी उससे परेशान थे। न उसका अपना कोई मित्र था और न उसे कोई चाहता था। सभी उससे घृणा करते थे। और सभी की घृणा एवं उपेक्षा ने उसे और अधिक कठोर बना दिया था। गांव के बाहर सभी लोग मिलकर एक बार उत्सव मना रहे थे। वह भी उत्सव में गया था, लेकिन उसका कोई साथी तो था नहीं, अत: उत्सव की भीड़ में भी अकेला। कितनी दयनीय स्थिति थी उसकी । एक ओर कुछ लड़के खेल रहे थे। अच्छा मनोरंजन था। पर, वह उन लड़कों के साथ खेलना चाह कर भी खेल नहीं सकता था। अपमानित सा अकेला दूर खड़ा-खड़ा केवल देख रहा था और मन-ही-मन कुछ सोच रहा था। इतने में एक भयंकर सर्प वहां आ निकला। लोगों ने तत्काल उसे मार दिया। थोड़ी देर में एक अलसिया निकला, लोगों ने उसे मारा नहीं, उठाकर दर कर दिया। हरिकेश बल के लिए यह केवल घटना न थी। इस घटना ने हरिकेश बल के विचारों को कुरेद दिया। वह सोचने लगा-"क्या मैं अपनी क्रूरता और कठोरता के कारण ही विषधर सांप की तरह मारा नहीं जाता हूँ। और यह बेचारा अलसिया ! कितना सीधा निर्विष प्राणी है। उसे कोई तकलीफ नहीं दे रहा है। बात ठीक है, व्यक्ति अपने ही गुणों से पूजा जाता है और अपने ही अवगुणों से अपमानित होता है।" जीवन के किसी गहरे तल को यह बात स्पर्श कर गई। इन्हीं चिन्तन के क्षणों में उसे जातिस्मरण हो गया और उसने आत्मभाव में लीनता का पथ पकड़ा। वह मुनि हो गया। सही मार्ग खोज १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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