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________________ १०२ ३०. जहा से सयंभूरमणे उदही अक्खओदए । नाणारयणपडिपुणे एवं हवइ बहुस्सुए ॥ ३१. समुद्दगम्भीरसमा दुरासया अचक्किया केrइ दुप्पहंसया । सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया ॥ ३२. तम्हा उत्तम गवेस । जेणऽप्पाणं सिद्धि Jain Education International सुयमहिद्विज्जा परं चेव संपाउणेज्जासि ॥ -त्ति बेमि । उत्तराध्ययन सूत्र जिस प्रकार सदैव अक्षय जल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र नानाविध रत्नों से परिपूर्ण रहता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है । समुद्र के समान गम्भीर, दुरासद ( कष्टों से अबाधित), अविचलित, अपराजेय, विपुल श्रुतज्ञान से परिपूर्ण, त्राता- - ऐसे बहुश्रुत मुनि कर्मों को क्षय करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं । मोक्ष की खोज करने वाला मुनि श्रुत का आश्रय ग्रहण करे, जिससे वह स्वयं को और दूसरों को भी सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करा सके । - ऐसा मैं कहता हूँ । ***** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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