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३०. जहा से सयंभूरमणे उदही अक्खओदए । नाणारयणपडिपुणे
एवं हवइ बहुस्सुए ॥
३१. समुद्दगम्भीरसमा
दुरासया
अचक्किया केrइ दुप्पहंसया । सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया ॥
३२. तम्हा
उत्तम गवेस ।
जेणऽप्पाणं सिद्धि
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सुयमहिद्विज्जा
परं चेव संपाउणेज्जासि ॥
-त्ति बेमि ।
उत्तराध्ययन सूत्र
जिस प्रकार सदैव अक्षय जल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र नानाविध रत्नों से परिपूर्ण रहता है, उसी प्रकार बहुश्रुत भी अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है ।
समुद्र के समान गम्भीर, दुरासद ( कष्टों से अबाधित), अविचलित, अपराजेय, विपुल श्रुतज्ञान से परिपूर्ण, त्राता- - ऐसे बहुश्रुत मुनि कर्मों को क्षय करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं ।
मोक्ष की खोज करने वाला मुनि श्रुत का आश्रय ग्रहण करे, जिससे वह स्वयं को और दूसरों को भी सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त करा सके ।
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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