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११- बहुश्रुत-पूजा
१४. वसे गुरुकुले निच्वं जोगवं
पियंकरे
वहावं । पियंवाई
से सिक्खं लडु मरिहई ||
१५. जहा संखम्मि पयं निहियं दुहओ वि विराय । एवं बहुस्सुए भिक्खू धम्मो कित्ती तहा सुयं ॥
१६. जहा से कम्बोयाणं आइणे कन्थए सिया । आसे जवेण पवरे एवं हवइ बहुस्सुए ॥
१७. जहाऽऽइण्णसमारूढे
सूरे उभओ
दढ रक्कमे । नन्दिघोसेणं
एवं हवइ बहुस्सुए ॥
१८. जहा करेणुपरिकिण्णे कुंजरे सट्टहायणे । बलवन्ते अप्पsिहए
एवं हवइ बहुस्सु ॥
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जो सदा गुरुकुल में अर्थात् गुरुजनों की सेवा में रहता है, जो योग और उपधान (शास्त्राध्ययन से सम्बन्धित विशेष तप) में निरत है, जो प्रिय करने वाला है और प्रियभाषी है, वह शिक्षा प्राप्त कर सकता है ।
जैसे शंख में रखा हुआ दूध स्वयं अपने और अपने आधार के गुणों के कारण दोनों ओर से सुशोभित अर्थात् निर्मल एवं निर्विकार रहता है, उसी तरह बहुश्रुत भिक्षु में धर्म, कीर्ति और श्रुत भी दोनों ओर से ( अपने और अपने आधार के गुणों से) सुशोभित होते हैं, निर्मल रहते हैं ।
जिस प्रकार कम्बोज देश के अश्वों में कन्थक घोड़ा जातिमान् और वेग में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत श्रेष्ठ होता है ।
जैसे जातिमान् अश्व पर आरूढ दृढ पराक्रमी शूरवीर योद्धा दोनों तरफ ( अगल-बगल में या आगे-पीछे ) होने वाले नान्दी घोषों से - विजय के वाद्यों से या जय जयकारों से सुशोभित होता है, वैसे बहुश्रुत भी सुशोभित होता है ।
जिस प्रकार हथिनियों से घिरा हुआ साठ वर्ष का बलवान हाथी किसी से पराजित नहीं होता है, वैसे ही बहुश्रुत भी किसी से पराजित नहीं होता
है ।
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