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१०. अह पन्नरसहि ठाणेहिं सुविणीए ति वुच्चई । नयावत्ती अचवले अमाई अकुऊहले ॥
११. अप्पं चाऽहिक्खिवई पबन्धं च न कुव्वई । मेत्तिज्जमाणो भई सुयं लद्धुं न मज्जई ॥
१२. न य पावपरिक्खेवी नय मित्तेसु कुप्पई । अप्पियस्सावि मित्तस्स रहे कल्ला भाई ||
१३. कलह - डमरवज्जए बुद्धे अभिजाइ । हिरिमं पडिली सुविणीए ति वुच्चई ।
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उत्तराध्ययन सूत्र
(१२) अजितेन्द्रिय है, (१३) असंविभागी है, - साथियों में बाँटता नहीं है,
(१४) अप्रीतिकर है
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पन्दरह कारणों से सुविनीत कहलाता है—
(१) जो नम्र है,
(२) अचपल है - अस्थिर नहीं है, (३) दम्भी नहीं है,
(४) अकुतूहली है - तामाशबीन नहीं है
(५) किसी की निन्दा नहीं करता है,
(६) जो क्रोध को लम्बे समय तक पकड़ कर नहीं रखता है, (७) जो मित्रों के प्रति कृतज्ञ है, (८) श्रुत को प्राप्त करने पर
अहंकार नहीं करता है - (९) स्खलना होने पर दूसरों का तिरस्कार नहीं करता है । (१०) मित्रों पर क्रोध नहीं करता है ।
(११) जो अप्रिय मित्र के लिए भी एकान्त में भलाई की ही बात करता है
(१२) जो वाक्- कलह और डमरमारपीट, हाथापाई नहीं करता है,
(१३) अभिजात (कुलीन) होता है, (१४) लज्जाशील होता है, (१५) प्रति संलीन ( इधर उधर की व्यर्थ चेष्टाएँ न करने वाला आत्मलीन) होता है,
वह बुद्धिमान् साधु विनीत होता है ।
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