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उत्तराध्ययन सूत्र
५४. अहे वयइ कोहेणं क्रोध से अधोगति में जाना होता
माणेणं अहमा गई। है । मान से अधम गति होती है। माया माया गईपडिग्याओ से सुगति में बाधाएँ आती हैं। लोभ से लोभाओ दुहओ भयं ॥ ऐहिक और पारलौकिक-दोनों तरह
का भय होता है।" ५५. अवउज्झिऊण माहणरूवं देवेन्द्र ब्राह्मण का रूप छोड़कर,
विउव्विऊण इन्दत्तं । अपने वास्तविक इन्द्रस्वरूप को प्रकट वन्दइ अभित्थुणन्तो करके इस प्रकार मधुर वाणी से स्तुति इमाहि महुराहिं वग्गूहि-॥ करता हुआ नमि राजर्षि को वन्दना
करता है : ५६. 'अहो ! ते निज्जिओ कोहो “अहो, आश्चर्य है-तुमने क्रोध
अहो! ते माणो पराजिओ।। को जीता। अहो ! तुमने मान को अहो ! ते निरक्किया माया पराजित किया। अहो ! तुमने माया को अहो! ते लोभो वसीकओ॥ निराकृत-दूर किया। अहो ! तुमने
लोभ को वश में किया। ५७. अहो! ते अज्जवं साहु अहो ! उत्तम है तुम्हारी सरलता।
अहो! ते साहु मद्दवं। अहो ! उत्तम है तुम्हारी मृदुता। अहो ! अहो! ते उत्तमा खन्ती । उत्तम है तुम्हारी क्षमा। अहो ! उत्तम है
अहो! ते मुत्ति उत्तमा । तुम्हारी निर्लोभता। ५८. इहं सि उत्तमो भन्ते! भगवन् ! आप इस लोक में भी
पेच्चा होहिसि उत्तमो। उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तम लोगत्तमुत्तमं ठाणं होंगे। कर्म-मल से रहित होकर आप सिद्धिं गच्छसि नीरओ।' लोक में सर्वोत्तम स्थान सिद्धि को प्राप्त
करेंगे।" ५९. एवं अभित्थुणन्तो
इस प्रकार स्तुति करते हुए इन्द्र ने, रायरिसिं उत्तमाए सद्धाए। उत्तम श्रद्धा से, राजर्षि को प्रदक्षिणा पयाहिणं करेन्तो करते हुए, अनेक बार बन्दना की। पुणो पुणो वन्दई सक्को।
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