________________
९-नमिप्रव्रज्या
४८. 'सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे “सोने और चांदी के कैलाश के
सिया हु केलाससमा असंखया। समान असंख्य पर्वत हों, फिर भी नरस्स लुद्धस्स न तेहिं किंचि लोभी मनुष्य की उनसे कुछ भी तृप्ति इच्छा उ आगाससमा अणन्तिया ।। नहीं होती। क्योंकि इच्छा आकाश के
समान अनन्त है।” ४९. पुढवी साली जवा चेव __“पृथ्वी, चावल, जौ, सोना और
हिरण्णं पसुभिस्सह। पशु-ये सब एक की इच्छापूर्ति के पडिपुण्णं नालमेगस्स लिए भी पर्याप्त नहीं हैं-" यह जान
इइ विज्जा तवं चरे॥' कर साधक तप का आचरण करे।" ५०. एयमटुं निसामित्ता इस अर्थ को सुनकर हेतु और
हेऊकारण-चोइओ। कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि तओ नमि रायरिसिं को इस प्रकार कहा
देविन्दो इणमब्बवी-॥ ५१. 'अच्छेरगमब्भुदए
___ "हे पार्थिव ! आश्चर्य है, तुम भोए चयसि पत्थिवा! प्रत्यक्ष में प्राप्त भोगों को तो त्याग रहे असन्ते कामे पत्थेसि हो और अप्राप्त भोगों की इच्छा कर संकप्पेण विहन्नसि ॥' रहे हो। मालूम होता है, तुम व्यर्थ के
संकल्पों से ठगे जा रहे हो।” ५२. एयमढें - निसामित्ता इस अर्थ को सुनकर, हेतु और
हेऊ कारण-चोइओ। कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र तओ नमी रायरिसी को इस प्रकार कहा
देविन्दं इणमब्बवी-॥ ५३. 'सल्लं कामा विसं कामा _ "संसार के काम भोग शल्य हैं,
कामा आसीविसोवमा। विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य कामे पत्थेमाणा हैं । जो काम-भोगों को चाहते तो हैं, अकामा जन्ति दोग्गइं॥ किन्तु परिस्थितिविशेष से उनका सेवन
नहीं कर पाते हैं. वे भी दर्गति में जाते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org