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उत्तराध्ययन सूत्र
४२. 'घोरासमं चइत्ताणं
अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ भवाहि मणवाहिवा!॥
“हे मनुजाधिप ! तुम घोराश्रम अर्थात् गृहस्थ आश्रम को छोड़कर जो दूसरे संन्यास आश्रम की इच्छा करते हो, यह उचित नहीं है। गृहस्थ आश्रम में ही रहते हुए पौषधव्रत में अनुरत रहो।"
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार कहा
४३. एयमटुं निसामित्ता
हेऊकारण-चोइओ। तओ नमी रायरिसी
देविन्दं इणमब्बवी-॥ ४४. 'मासे मासे तु जो बालो
कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्धइ सोलसिं॥
__ “जो बाल (अज्ञानी) साधक महीने-महीने के तप करता है और पारणा में कुश के अग्र भाग पर आए उतना ही आहार ग्रहण करता है, वह सुआख्यात धर्म (सम्यक चारित्ररूप मुनिधर्म) की सोलहवीं कला को भी पा नहीं सकता है।" ___ इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा
४६.
४५. एयमटुं निसामित्ता
हेऊकारण-चोइओ। तओ नमि रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥ "हिरण्णं सुवण्णं मणिमुत्तं कंसं दूसं च वाहणं। कोसं वड्डावइत्ताणं
तओ गच्छसि खत्तिया॥ ४७. एयमटुं निसामित्ता
हेऊकारण-चोइओ तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥
"हे क्षत्रिय ! तुम चांदी, सोना, मणि, मोती, कांसे के पात्र, वस्त्र, वाहन
और कोश अर्थात् भण्डार की वृद्धि करके फिर जाना, मुनि बनना।"
इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार कहा
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