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२-नमिप्रव्रज्या
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३६. पंचिन्दियाणि कोहं
माणं मायं तहेव लोहं च। दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं ।।
पाँच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन-ये ही वास्तव में दुर्जेय हैं। एक अपने आप को जीत लेने पर सभी जीत लिए जाते हैं।"
३७. एयमटुं निसामित्ता
हेऊ कारण-चोइओ। तओ नमि रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥
इस अर्थ को सुनकर हेत और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा
३८. 'जइत्ता विउले जन्ने
भोइत्ता समणमाहणे। दच्चा भोच्चा य जिट्ठाय तओ गच्छसि खत्तिया ! ॥
“हे क्षत्रिय ! तुम विपुल यज्ञ कराकर, श्रमण और ब्राह्मणों को भोजन कराकर, दान देकर, भोग भोगकर और स्वयं यज्ञ कर के फिर जाना, मुनि बनना।"
३९. एयमटुं निसामित्ता
हेऊकारण-चोइओ। तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार कहा
४०. 'जो सहस्सं. सहस्साणं
मासे मासे गवं दए। तस्सावि संजमो सेओ अदिन्तस्स वि किंचण ॥'
_ "जो मनुष्य प्रतिमास दस लाख गायों का दान करता है, उसको भी संयम ही श्रेय है—कल्याणकारक है। फिर भले ही वह किसी को कुछ भी दान न करे।"
४१. एयमटुं निसामित्ता
हेऊकाराण-चोइओ । तओ नमि रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥
इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा
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