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उत्तराध्ययन सूत्र
'पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणि य। उस्सूलग-सयग्घीओ तओ गच्छसि खत्तिया!॥'
"हे क्षत्रिय ! पहले तुम नगर का परकोटा, गोपुर-नगर का द्वार, अट्टालिकाएँ, दुर्ग की खाई, शतघ्नी--एक बार में सैकड़ों को मार देने वाला यंत्र-विशेष बनाकर फिर जाना, प्रव्रजित होना।”
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार कहा
१९. एयमटुं निसामित्ता
हेऊकारण-चोइओ। तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥ 'सद्ध नगरं किच्चा तवसंवरमग्गलं। खन्ति निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं ॥
“श्रद्धा को नगर, तप और संयम को अर्गला, क्षमा को (बुर्ज, खाई और शतघ्नी-स्वरूप) मन, वचन, काय की त्रिगुप्ति से सुरक्षित, एवं अजेय मजबूत प्राकार बनाकर
२१. ध] परक्कम किच्चा
जीवं च ईरियं सया। धिइं च केयणं किच्चा सच्चेण पलिमन्थए।
पराक्रम को धनुष, ईर्या समिति को उसकी डोर, धुति को उसकी मठ बनाकर, सत्य से उसे बांधकर
२२. तवनारायजुत्तेण
भेत्तूणं कम्मकंचुयं। मुणी विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चए ।'
तप के बाणों से युक्त धनुष से कर्म-रूपी कवच को भेदकर अन्तयुद्ध का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता
२३. एयमटुं निसामित्ता
हेऊकारण-चोइओ। तओ नमि रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा
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