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९- नमिप्रव्रज्या
११. एयमट्ठ
निसामित्ता
ऊकारण - चोइओ | तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी - ॥
१२. 'एस अग्गी य वाऊ य
एयं भयवं !
उज्झइ मन्दिरं । अन्तेडरं तेणं
कीस णं नावपेक्खसि ? ॥'
१३. एयमट्ठ निसामित्ता ऊकारण- चोइओ । तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी - ॥ १४. 'सुहं वसामो जीवामो
जेसिं मो नत्थि किंचण । मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डज्झइ किंचण |
१५. चत्तपुत्तकलत्तस्स
निव्वावारस्स भिक्खुणो । पियं न विज्जई किंचि अप्पियं पि न विज्जए ।
१६. बहुं खु मुणिणो भद्दं अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स एगन्तमणुपस्सओ ॥'
१७. एयमहं निसामित्ता हेऊकारण — चोइओ । तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी - ॥
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राजर्षि के इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा
“यह अग्नि है, यह वायु है और इनसे यह आपका राजभवन जल रहा है । भगवन्! आप अपने अन्तःपुर ( रनिवास) की ओर क्यों नहीं देखते ?”
देवेन्द्र के इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को इस प्रकार कहा
“जिनके पास अपना जैसा कुछ भी नहीं है, ऐसे हम लोग सुख से रहते हैं, सुख से जीते हैं । मिथिला के जलने में मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है
पुत्र, पत्नी और गृह- व्यापार से मुक्त भिक्षु के लिए न कोई वस्तु प्रिय होती है और न कोई अप्रिय
'सब ओर से मैं अकेला ही हूँ' – इस प्रकार एकान्तद्रष्टाएकत्वदर्शी, गृहत्यागी मुनि को सब प्रकार से सुख ही सुख है । "
इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र से नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा
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