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उत्तराध्ययन सूत्र
देवेन्द्र ने कछ और भी इसी से मिलते-जुलते प्रश्न खड़े किये । देवेन्द्र की सभी बातें लोकजीवन की नीतियों से सम्बन्धित हैं, अत: वे आसानी से समझ में आने जैसी हैं। किन्तु राजर्षि नमि के सभी उत्तर आध्यात्मिक स्तर के हैं, अत: उन्हें समझना आसान नहीं है। एक अहिंसक एवं दयाल मुनि के ये शब्द कि “मिथिला जल रही है, तो उसमें मेरा क्या है, मेरा तो कुछ भी नहीं जल रहा है.-" काफी अटपटे लगते हैं। किन्तु नमिराजर्षि ने बहुत गहराई में जाकर इन शब्दों के माध्यम से अध्यात्म भावना के प्राण 'भेद-विज्ञान' की चर्चा की है। मिथिला ही नहीं, अगर नमि राजर्षि का शरीर भी जलता, तो भी उनके ये ही शब्द होते । राज्य-रक्षा, राज्य-विस्तार, शत्रु, और चोर-लुटेरों के दमन की अपेक्षा अन्तर का राज्य, आत्मदर्मन, आत्मरक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। बाहर की दुनिया को बचा लेने पर भी अन्तर्जीवन अगर असुरक्षित है, तो बाहर की सुरक्षा का कोई अर्थ नहीं है। बाहर के हजारों शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा आन्तरिक शत्रुओं पर प्राप्त की जाने वाली विजय ही वास्तविक विजय है। उक्त शब्दों में नमिराजर्षि पूर्ण अनासक्त नजर आते हैं।
वे परिवार आदि के बाह्य संसार से ही नहीं, किन्तु शरीर, मन, इन्द्रिय, उनके विषयभोग, मोह और अज्ञान-इन सबको भी पार कर गये हैं। बाहर की दुनिया में उनके लिए कोई शत्रु नहीं रहा है। उन्होंने आध्यात्मिक पूर्णता का पथ अपना लिया है, वे अनन्त के यात्री हो गये हैं।
नमि राजर्षि के उत्तर सुनकर देवेन्द्र प्रभावित होता है, उनके गुणों की प्रशंसा करता है और क्षमा माँगकर वापिस स्वर्गलोक को चला जाता है।
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