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नमिप्रव्रज्या साधक संसार को प्रिय और अप्रिय में
विभाजित नहीं करता है !
मिथिला के राजा 'नमि' एकबार छह मास तक दाह ज्वर की भयंकर वेदना से पीड़ित रहे । उपचार होते रहे, पर कोई लाभ नहीं। एक वैद्य ने शरीर पर चन्दन का लेप बताया। रानियाँ चन्दन घिसने लगीं। चन्दन घिसते समय हाथों के कंकण परस्पर टकराए, शोर हआ। वेदना से व्याकुल राजा कंकण की आवाज सहन नहीं कर सके । रानियों ने सौभाग्य-सूचक एक-एक कंकण रखा और सब कंकण उतार दिए। आवाज बन्द हो गयी। अकेला कंकण भला कैसे आवाज करता?
राजा के लिए यह घटना, घटना न रही। इस घटना ने राजा की मनोगति को ही बदल दिया। यह विचारने लगा कि-"जहाँ अनेक हैं, वहाँ संघर्ष है, दु:ख है, पीड़ा है। जहाँ एक है, वहाँ पूर्ण शान्ति है। जहाँ शरीर, इन्द्रिय, मन और इनसे आगे धन एवं परिवार आदि की बेतकी भीड़ है, वहीं दुःख है। जहाँ केवल एक आत्मभाव है, वहाँ दु:ख नहीं है।"
राजा के अन्तर में विवेकमूलक वैराग्य का उदात्त जागरण हुआ और वह निर्ग्रन्थ मुनि हो गया। सब कुछ यों-का-यों छोड़ कर नगर से बाहर चला गया।
यह सूचना स्वर्ग में भी गई कि नमिराजा यकायक मुनि हो गये हैं। इस त्याग में और तो कोई कारण नहीं है। त्याग की यह ज्ञानचेतना स्थिर है, या यह कोई क्षणिक उबाल है'- यह जानने के लिए स्वर्ग का राजा इन्द्र ब्राह्मण के वेष में नमि राजर्षि के पास आया और क्षात्रधर्म की याद दिला कर आग्रह किया कि–'आपको राजधर्म का पालन करने के बाद ही मुनि धर्म की दीक्षा लेनी चाहिए।'
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