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बुद्धि-विलास इनको चलन जगत सव जानें, गूथ माझि अव कहा वषांनै ।
परगट दीसत छांनौं नाहीं, तातै वरनन कहा करांहीं ॥५२५॥ दोहा : मत स्वेतांवर' मैं वहुरि, लषियत' अवै प्रतछ्छ । फाटे मन मद ठांनि सो, हैं चौरासी गछ्छ ।
कवि वचन दोषभाव धरि नहि कियो, कियो न निज-मत-पोष । सत्यारथ उपदेस यह, करै सुजन संतोष ॥५२६॥ सत्यारथ वांनी प्रगट, घट-घट कर उदोत । संसय-तिमर मिटै पटल, वटै ग्यान सुष होत ॥५२७॥
॥ इति वोल संपूर्ण ॥
अथ द्रावड़-संघ-उतपति-वर्नन दोहा : द्रावड़संघ उत्तपति' भई, जिम भाषी मुनि ईस।
संवत बीते पांच सै, ऊपरि और छतीस ॥५२८॥ चौपई : मुनि श्रीपूज्यपाद गुनषांनि, वज्रनंदि तसु चेला जांनि ।
पाहुडोनि वेता तन षीण, सर्वसाख मैं महाप्रवीण ॥५२६॥ इक दिनि चेले क्रोध उपाय, दक्षिण मथुरा के मधि पाय।
द्रावडसंघ नयो टहराय', नये नये सिद्धांत वरणाय ॥५३०॥ चौपई : भाषी वीज मद्धि नाहिर जीव, है प्रासुक नहि दोष सदोव ।
ती विरराज आदि बहु कर्म, करि जीवो यामै न अधर्म ॥३१॥ सोतल जल के करै सनांन, तिन के अघ अति होत' सुजांन । इन्हैं आदि विपरीति जु वात, करि द्रविड-संघ कियो विष्यात ॥५३२॥
४ गछ।
५२६ : १ श्वेतांवर। २ लषिमत। ३ प्रतछ। ५२८ : १ उतपति। ५२६ : १ पाहुडांनि। २ षीन । ५३० : १ दिन। २ ठहराय । ५३१ : १ A missing । २ नहि । ५३२ : १ होय। २ द्रावड। ३ कीयो।
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