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________________ बुद्धि-विलास [ ६७ अरिल : भोग भूमि छयांनवै नगनहि उछेदि के, __ चर्म नीर नै दोस न लावहि वेदिक। घृत करि साधित बासी भोजन लेत' हैं, ___ सारे फल कौं भुंजत दोष न देत है ॥५१८॥ कवित : रिषभ विरागत निमति नीलंजसा नृति', मांनै नांहि देव देवि कोनी' जो विधान की। मात-पिता जीवते विराग ताकौं नांहि धरै, वीर वर्द्ध मान जिन गर्भवास प्रांन की ॥ वाहुवलि कौं कहैं कि युगल स्वरूपधारी, हाड पूर्जे कौडे थापि कहै परठांन की। नाभि मरुदेवी कौं जुगलधर्म मानतु हैं, तिन ही ते जिन-उतपति सरधान को ॥१६॥ चौपई : हौंहि जुगलिया सव मलधारी, कहै सिलाका-पुरिष निहारी। चौसठि इंद्र न अधिके जांन, वारह देवलोक ही मानें ॥२०॥ जे जादौं जिन मारिग पक्षी, तिनकौं कहैं मांस के भक्षी। मनुज मांनषोतर के प्रागैं, जेहें कह न दूषन लागें ॥५२१॥ छंद रोडक: नांही है नांही है काम चौवीस ॥ अरु नव-नवोत्तरे लघु समुद्र मानत नांहो। भैरापति भरत तजि क्षेत्र ऐकसौ साठि माही ॥ चौरासी लष जोंनि हैं, ऐ चौरासी वोल । जे मांने ते मांनि हैं, भवसागर-कल्लोल ॥५२२॥ दोहा' · तिनहूं तें लौका ढूंढिया, निकसि जुदे मत कौं थापिया। प्रतिमां तिनु पूजन तजि दई, दोष कहे याम अधिकई ॥२३॥ तिनमें लौंका सुचि तो रहैं, दूढया महा असुचि' कौं गहैं। नहि प्राचार विचार न कोय, जात धर्मसधै सुभ होय ॥५२४॥ ५१८ : १ लेतु। २ देतु । ५१६ : १ नृत्य। २ कोनौं। ३ मुगल। ५२३ : १ चौपई। ५२४ : १ अश्रुचि। २ घरम । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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