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बुद्धि-विलास आभरण सहित जिनेस-प्रतिमां राग-कारण मानते । अनमिल वषांनहि और ठांनहि कलपनां सरधानते ॥५११॥ साभरण' सव सनमुक्ति जै हैं मोनि परिगृह हठ गहैं। रवि-चंद-मंडल-मूल आया वीर वंदन को कहैं। सासुती गति मरजाद मेटहि सूर-ससि की जानते। अनमिल वषांनहि और ठांनहि कलपनां सरधानते ॥५१२॥ दूषन अठारह मांहि वदलै कहहि और सवारिकै। चौतीस अतिसय वदलि केई गहहि और विचारिकै ॥ जिनमत-निवासी सौं लरहि मुनि दोष रचनां ठांनते। अनमिल वषांनहि और ठांनहि कलपनां सरधांनते ॥५१३॥ सौधर्म स्वरपति जीतिवे कौं चमर वितरपति' गयो। तसु वज्रदंड विलास-पंडित कहहिर वीर-सरनि भयो । कर पूरवत मरि गएँ न पिरै जुगल-तनु-परवांनते। अनमिल वषांनहि और ठांनहि कलपनां सरधांनते ॥५१४॥ निर्वान' होत जिनेस-काया पिरै दामिनिवत नही। वर नारि दे थिर करै श्रावक देषि कांमी मुनि कही। केवली तनत जीववध ह कहैं मत मद-पांनते। अनमिल वषांनहि और ठांनहि कलपनां सरधांनते ॥५१॥ सुरगि लै जिनदाढ पूजहि ईद्र जिन जव सिव गमैं । जिन वीर मेर-अचल लायो जनम कल्यांनक समैं ॥ जिन-जनम-सूचक स्वपन' चौदह और नहि मन प्रांनते। अनमिल वषांनहि और ठांनहि कलपनां सरधानते ॥१६॥ गंगादेवी सौं कहै, पचमन वरष हजार । चक्रवत्ति भरतेस नैं, कियो भोग-विवहार ॥५१७॥
दोहा :
५११ : २ प्राभरण। ५१२ : १ साभरण। २ मुकति । ५१४ : १ व्यंतरपति। २ कह हि। ५१५ : १ निरवांन । ५१६ : १ सुपन।
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