SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धि-विलास [ ६५ कहैं है जवाई वीर नाथ को जमाली नामां, वीर है कुमारो सुनि लरनै कौं षहै हैं। ध्र वकि-ध्र वकि करि केवली कपिल नांच्यो, मूरिष रिझांवन कौं असी मांनि रहै है। सांची वात झूठी कहैं वस्तु को न भेद लहैं, हठरीति गहि रहौं२ मिथ्या वात कहै हैं ॥५०७॥ छप्पै कहहि वहुत्तरि सहस भई वसुदेव-वधूगन । धनुष' पंच सै उच्च वाहुवलि कहैं धरचौ तन ॥ सूद्र-जाति-धरि असन करत मुनि दोष न पावै । देव मनुषिणी भोग-भोग वहि सुरत वढावै ॥ इक गर्भ मांहि सुलसा धरे, सुत वत्रीस जनै भनहि। पहिले त्रपष्टिः हरिदेव' की, नानां तें उतपति गनहि ॥५०॥ मांनहि वीर विहार अनारिज देस भूमि पर । कहहि मलेछ चतुर्थ काल सारै हूऐ भर ॥ देव-कोस सै च्यारि-कोस को तन अव धारय । प्राणघात वृत-भंग करत नहि पाप विचारय ॥ उपवास मांहि वोषदि' भषत, वृती त धारहि दोष मल । चौसठि-हजार नारी गिर्ने, चक्रवत्ति धरि तनु नवल ॥५०॥ समोसरन जिन नगन नांहि दोसै परवांनहि । अविक्रत तन मैं वख राग-कारण सरधानहि ॥ लाठी रार्षे जती कहै अस कर्म' वधांवहि । गज ऊपरि ही मुंक्ति२ गई मरुदेवि वतांवहि ॥ नारी अगम्य दुरधर कठनि पंच महाव्रत-पद धरहि । नहि लहहि दोष वलहीन मुनि वार वार भोजन करहि ॥५१०॥ छंद गीता : दरवित क्रिया विन भावलिंग गृहस्थ किवल' पद धरै। चिडाल-प्रादिक जाति निदित मुक्ति तदभव वसि करें। ५०७ : १ ध्र वक-ध्र वक। २ रहैं । ५०८ : १ धनष। २ त्रिपिष्ट । ३ हरदेव। ४ मनहि। ५०६ : १ वोषधि। ५१० : १ करणं। २ मुकति । ३ A अगाम्य । ५११ : १ केवल। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainel
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy