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________________ बुद्धि-विलास चोपई : कहै जुगल हरिषेत्र निवासी, काहू देव हरयो सविलासी। पूरव वैर दषि दुष दीनों, अवगाहन करि छोटो' कीनौं ॥४६४॥ सोही' भरथषंड फिरि प्रांन्यो, मुथरा नगरी राज दिवांन्यो। पापी करि तिन मांस षवायो, नरक नगर के पंथ चलायो ॥४६५॥ तिसके कुल हरिवंस वषांने, सत्यारथ उपदेस न माने । जुगल सर्व ही स्वरगति' गांमी, नरक न सेवहि रिजु परणांमी ॥४६६॥ तीन कोस की तिनकी काया, स्वर क्यौं करि लघु रूप बनाया। जो तुम इसहि अछेरा मानौं, तो भी नांहि वनै मनि प्रांनी ॥४६७॥ काल अनंतानंत भये तें, एक एक ही जुगल गये तें। सव हरिषेत्र भूमि का पाली, हूं कौं' मिट जुगल परनाली ॥४८॥ दोहा : सव गिरणती के जुगल है, घटै वढे नहि कोय । मरण काल ही जुगल के, प्राय जुगलिया होय ॥४६॥ राषतु' चौदह उपकरण, मुनि कमै नाहि नु दोष । परिग्रह त्याग दसा विष, करै परिग्रह पोष ॥५००॥ जहां प्रमाणू सम नही, परिग्रह ग्रह कौं रंच । तहां कहीं क्यों करि वन, वखादिक परपंच ॥५०१॥ कवित्त : काल पाय मैले होय आसा होय धोवन की, धोयें नसै संजम प्रारंभ विसतारै' है। नास भये मांगन को त्रास होय नासन के, डरते सु ध्यान विषौर थिरता विडार है। देहु द्रुति मंडन है ब्रह्मचर्य छंडन है, जिन लिंग पंडन है तातै पट डार है। संवर धरनहार अंवर सौं अविकार, होय के निरंवर दिगंवरहि धारै है ॥५०२॥ ४६४ : १ छोटो। ४६५ : १ सोई। ४६६ : १ स्वर्गति। ५००:१राषत। ५०२ ! १ बिस्तार। २ विशे। ३ बिसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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