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बुद्धि-विलास
जाकी सोलह स्वर्ग तें, प्रागै नांहीं गंम्य ।
तिस नारी कौं यौँ कहैं, रमै मोष्य पद रंम्य ॥४८६॥ कवित : जाके सव मलद्वार धारें है निगोदि भार,
कवहू न अविकार हिंसा तें रहत हैं। सिथल सुभाव लिये परपंच संच किये,
लाज को समाज धरै अंवर चहत हैं । छठे गुण थांन मांहि थिरता न ध्यान महि,
मांस मांस रितु ताहि संकता लहतु' हैं। जगत विलविनी की हीन दसालंविनी कौं,
यात ही नितंविनी को मोषि न चहुत हैं ॥४७॥ दोहा : मुक्ति कामिनी कौं रमैं, एक पुरिष विसेष ।
रमैं न कामिनि कामिनी, यह परगट ही देष ॥४८॥ अरिल दोहा' : समय विरोधी देषिऐ, परगट वितथ विचार ।
मल्लिनाथ जिनको कहैं, मली कुमारी नारि ॥४८॥ रिल: सुरग भूमि पाताल लोक मैं देषिये,
नारी नाथ सुनी कवहू न विसेषिये। जगत वंद्य प्ररहंत' देव पद क्यों धरै,
नर अधीन जो हीन निदि पद प्राचरै ॥४६०॥ चौपई : जो नारी कौं नर पद मांनो, तो ताकी प्रतिमा किन ठांनौं।
पुरिष प्रकार एक ही वंदौ, नारी रूप क्यों न अभिनंदो ॥४६१॥ जो नितंविनी विव न सोहै, कुच रूपादिक मंडित होहै।
तो लज्जा करि कामनि रूपी, क्यौं करि जिनवर होय प्ररूपी ॥४२॥ दोहा : जाके दरसरण' परस ते, रागादिक मिटि जाय ।
तिस नर रूपी ईस कौं, वंदो सीस नवाय ॥४६३॥
४८७ : १ लहत। ४६ : १ । २ बिचारि । ४६० : १ अरिहंत। ४६३ : १ दरसन।
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