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बुद्धि-विलास
[ ६१ चौपई : जहां वात का नाहि नवेरा, तिह' कलपित करि कहैं अछेरा।
भैसी वांनी मूंढ वषाने, दरसन मोह लीन सरधान ॥४७६॥ दोहा : पंच कुमार जिनेस हैं, सत्यारथ मत मांहि ।
मल्लि नेमि एई कुमर, कहैं द्वै अवर नांहि ॥४८०॥ तीर्थकर जिन को नमैं, सांमांनिक जिनिराय ।
कहैं बाहुबलि केवली, नमो वृषभ' के पाय ॥४८१॥ कवित्त : अरिहंत पद वंद्य वंदक सरूप मेरो,
___ असे भाव परमाद गुनताई वहै हैं। सातमी धरातै प्रागै प्रातमी3 करस जागें,
तहां वंद्य वंदक विभाव नाहि रहै हैं । साधक दसा मै जहां वाधक है असा भाव,
तहां जिन जिन वंदै मंद वुधी कहै हैं। परवा सरूप धारी वीतराग अविकारी,
वंदनीक एक मानी ग्यांनीसर दहै हैं ॥४८२॥ सवैया : केवल ग्यांन विष ज्यन वीर कहैं अनजान अचानक छोक्यौ।
सो न वनै जव छींक उठ जव वात कफा मय व्यापत जी कौं॥ धातु विजित निर्मल ईस सरीर विष नही रोग रती को।
छींक कलंक अटंकित अंकित शुद्ध दसा तहां दोष नहीं को ॥४३॥ अरिल : तिरदंडी तापसी कुलिंगी भेष सौं,
पावत सुनि जिन वीरनाथ उपदेस सौं। गोतम स्वामी गणधर वृतधर जैन को,
____ ताकै सनमुषि' गयो भगति सौं लेन कौं ॥४८४॥ दोहा : धारक संम्यक दरसनी, कर न कुमती मान ।।
क्यौं करि गणधर पूज्य पद, करै सुभक्ति विधांन ॥४८५॥
४७६ : १ तंह। ४८१ : १ रिषभ । ४८२ : १ सवैया। २ प्रातमी। ३ बुद्धी। ४८३ : १ सवैया २३ सा। ४८४ : १ सनमुष ।
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