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दोहा :
कवित्त : कहै कोऊ क्रोधसाला' हुवौ है गोसाला मुनि, तिन तैं ज्वाला-माला छूटी परजलती । वीर के समोसरन दहि मुनि दोय तिन, ताकी भल स्वामी हूं को पहुंची उछलती ॥ तहां भयौ उपसर्ग ताही ऊषमां तें फिरि,
उदर की व्याधि भई श्रम लोहू चलती । दोष जानि तजै सो सरधांन, ग्यानवांन जिन कैं सु जोति जगी बलती ॥४६४ ॥
दोहा :
बुद्धि-विलास
जाकौं देषि मिटै विकट, घोर उपद्रव वरर्ग' । दोष दोय ताकै कहै, रोग और उपसर्ग ॥ ४६३॥
अरिल :
जनमत ही मति श्रुति श्रवधि, तीन ग्यांन घट जास । कहैं पढ्यौ चट साल स्यौं वर्द्धमान गुनवास ॥४६५ ॥ कहैं और सितवास मत, जव जिन होय विराग । एक वरस लौं दान दे, अंत करें घर त्याग ॥४६६ ॥ जिन वैराग्य दसा धरत, त्यागे सव परभाव । कहा जानि अपनों करें, पाछे धरी दिगंवर जिन दसा, पाछे ईंद्र धरै जिन कंध पर, यह संसय मति मांनि ॥ ४६८ ॥ चौपई छंद गणधर विनां वीर की वांनी, निफल षिरी नही' काहू मांनी । वेसरि' : समकित वृत का भया न धारी, कोऊ तहां कहै सविकारी ॥४६६ ॥
दान
वताव ॥४६७ ॥
अंवर श्रानि ।
दोहा :
परगट
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वांनी षिरयन' षिर यतौ, होय सफल तहकीक२ । विरै फल विनां जे कहैं, तिनकी वात अलीक ॥४७०॥
लोकनाथ सौ जिनवर जाकौ पूत है,
४६३ : १ वर्ग । ४६४ : १ क्रोधसला । ४६८ : १ परि । ४६६ : १ Missing ४७० : १ षिरंन ।
तिस माता को कहैं श्रौर परसूत है ।
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२ नहि । २ तहकीक ।
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