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बुद्धि-विलास तहां भूष आदिक असाता कहां वल करै,
विष करिण कान करै सागर मलीनता ॥४५६॥ देव मानसी कही प्रहार ते त्रपति' होय,
नारकीक जीवनि को कर्म को प्रहार है। नर तिर जंच के प्रगट कवला प्रहार,
ऐक इंद्री धारक के लेप को अधार है। अड़े की विरिधि ह उजाग्राहार3 सेवन तें,
पंषी उर ऊषमा तै ताकी वढ वार है। नौ कर्म वर्गनां को केवली के है प्रहार,
देह अविकार कहै जो न सविकार है ॥४५७॥ दोहा और जीव कै लगत नहि, तन पोषक सुषदाय ।
समय समय जगदीस के, लगै वर्ग नां प्राय ॥४५८॥ छप्पै : षुध्या त्रषा' भय दोष रोग जर मरण जनम मद ।
मोह षेद पर स्वेद नोंद विसमय चितागद ॥ रति विषाद ऐ दोष नांहि अष्टादस जाके।
केवल ग्यांन२ अनंत दरस सुष वीरज ताकै॥ नहि सप्त धात सव मल रहित परमो दारिक तन सहित ।
अंतर अनंत सुष रस सरस सो जिनेस मुनिपति महित ॥४५६॥ दोहा : कलप' विकलपी कहत हैं, और दोष विकराल ।
निरमल केवल नाथ के, है निहार मल जाल२ ॥४६०॥ जाहि प्रहार वनै नही, तँह क्यों होय निहार।
परगट दूषन देषिए, इसमें कौन विचार ॥४६१॥ चौपई : जे मुनि तपति रिद्धि के धारी, गहत प्रहार हिये न निहारी।
कहि क्यों सकल जगत को स्वामी, कर निहार अमल पद गांमी ॥४६२॥
४५७ : १ त्रिपति। २ प्रकार। ३ उजाहार। ४ बर। ४५६ : १ त्रिषा। २ ज्ञान । ४६० : १ कलपि । २ लाज ।
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