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बुद्धि-विलास ऐ सव चौदह उपकरण, राषण मैं नहि दोष । असें कहि सवकौं कियौ, मत स्वेतावर पोष ॥४५०॥ नऐ वनाऐ गृथ वहु, आगम' वहुरि सिधांत ।
तिनमैं भाषे सो कछुक, सुनिऐ भवि विरतांत ॥४५१॥ चौपई : जनम कल्यांनक पूजा करें, प्रांगी रचि जग को मन हरै।
देहुरांनि को चलन मिटाय, उपासिरा दीन्हे ठहराय ॥४५२॥ प्रतिमां प्रभु की थाप जहां, जुड़ि किवाड़ .भोजन ले तहां।
फुनि गृथनि मैं जो विपरीति, भाषी सो सुनिएँ करि प्रीति ॥४५३॥ सोरठा : ऐ चौंरासी वोल, नऐ सथापे वहसि करि।
तिनकी कथा कलोल. कछु यक यह वर्नन' करू२ ॥४५४॥
अथ चौरासी बोल परि हेम क्रत छंद छपै'। कवित्त : केवली प्रहार कर माने तिन्है लागत है,
दूषन अठार परमाद महा मोहिऐ। मोह के विनासकारी वीरज अनंत धारी,
जिन्हें भूष लागे असे कहत न सोहिऐ ॥ भुंजत अनंत सुष भोजन तै कौंन काज,
प्रादित कै उदै कहौ कहा दीप वोहिऐ। काहू परकार इनकै न कवला प्रहार,
जे कहै है तिनके जग्यौ है ग्यांन को हिऐ ॥४५५॥ मोहनी करम नांस वेदनी को वल नांस,
विसकै' विनासै ज्यौ भुजंगम की हीनता। इंद्रीनि के ग्यांन सौं न सुष दुष वेदै जहां,
वेदनी को स्वाद वेदै इंद्रीनि की बीनता ॥ प्रातमीक अंतर अनंत सुष वेदै जहां,
__वाहरि निरंतर है साता की अछीनता।
४५१ : १ प्रागम। २विविरतांत । ४५४ : १ वरनन । २ करौं । ४५५ : १ missing . ४५६ : १ बिसकौं।
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