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बुद्धि-विलास लोकपाल ताकौ नतय, ताहि दई परणाय । ससिरेषा कन्या वहै, हय गय दै वहु चाय ॥४३८॥ प्रजापाल सुरगनि गयौ, लोकपाल हुव राज। काहू दिनि अति प्रस्न' लषि, तिय वोली तजि लाज ॥४३६॥ अहौँ भूप मेरो' जु गुर२, है कनवज के देस । ताहि वुलाय यहां अवै, कोजे भक्ति विसेस ॥४४०॥ नृप मन्त्री नु विनाय करि, लीने तिन्ह' वुलाय । साम्हें चाले भूप हू, ल्यावन को चित चाय ॥४४१॥ लषि वन को वह रूप जव, नही वस्त्र कछु पासि ।। नही दिगांवर रूप यह, नृप तव भऐ उदास ॥४४२॥ विचि ही तें प्राऐ सु उठि, वन 4 गऐ न राय । तव नृप कौ राणी सवै, जांनि लयौ' अभप्राय ॥४४३॥ मंत्रिनु कौं षिनवाय करि, राणि वन के पासि । स्वेत वस्त्र लाऐ तिन्है, वहु विधि करि अरदासि ॥४४४॥ तव नृप सांम्हे जाय फुनि, ल्याऐ नगरी मांहि । भक्ति करी जिणचंद की, भाव-सहित अधिकांहि ॥४४५॥ तव ते मत ठहरयौ यहै, स्वेतावर' सु कहात । भद्रवाहु के चरित मैं, भाषी है यह वात ॥४४६॥ फुनि चौदह उपकरण ऐ, नऐ नऐ ठहराय । यनके' मत के जतिनु कौं, राषन दऐ वताय ॥४४७॥
उपकर्ण-नांम राषौ तीन पछेवड़ी, वहुरि धोवत्ती तीन । तीन पातरा काठ के, लाठी ऐक नवीन ॥४४८॥ वोघा दोय जु ऊंन के, ऐक मौहपती जोरि । पात्रा के मुषि वांधणी, ऐक तर्पणी डोरि ॥४४६॥
दोहा :
४३६ : १ प्रश्न ४४० : १ मेरे। २ जगुरु। ३ कोज्ये। ४४१ : १ तिनहि। ४४२ : १ कछु। २ पास। ३दिगंबर। ४४३ : १ लियो। २ अभिप्राय । ४४६ : १ स्वेतांबर। ४४७ : १ इनके।
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